१९८० के आसपास की बात होगी. मै छात्र था और एक सायं शाखा का गणशिक्षक. नागपुर का विजयादशमी उत्सव महत्व का होता है और बड़ा भी. उस कार्यक्रम में अधिक से अधिक संख्या में स्वयंसेवक उपस्थित रहे इसके लिए विशेष प्रयास भी किये जाते है. अपने गण के अधिक स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में कार्यक्रम में उपस्थित हो ऐसा प्रयास गणशिक्षक करते थे. स्वाभाविक ही स्वयंसेवकों का गणवेश पूर्ण करने की जिम्मेवारी भी गणशिक्षक पर आती थी. गणवेश का सामान संघ के कार्यालय में ही मिलता है. किसको क्या चाहिए, किस स्वयंसेवक के पास किस चीज की कमी है यह लिखकर सबका वह सामान खरीदने के लिए कार्यालय गया था. विजयादशमी उत्सव के २-४ दिन पूर्व. उस समय बालासाहब देवरस संघ के सरसंघचालक थे. उनके और उनके पूर्व दुसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी के स्वीय सहायक रहे डा. आबाजी थत्ते से हमारे पारिवारिक संबंध थे. जब नागपुर में रहते थे तब उनका रहना संघ के महल कार्यालय में ही रहता था. मै गणवेश का सामान खरीदने गया तब वो नागपुर में ही थे. स्वाभाविक ही उनसे मिलने गया. उनसे जो मिले होंगे उन्हें पता होगा की वो बहुत हंसीमजाक, गपशप करनेवाले थे. थोडा समय उनसे बातचीत हुई, खिलखिलाना आदि हुआ. गणवेश का सामान खरीदा और घर वापस आया.
दुसरे दिन शाम को माँ ने
कुछ घरेलू सामान ले आने को कहा. पास वाले एक किराना दुकान पर गया. उसे `झोपडी का
दुकान’ कहते थे. और वो दुकान चलाने वाले थे मामाजी. दुकान में गया तो थोड़ी भीड़ थी.
मै खड़ा था. मामाजी अच्छे बोलचालवाले आदमी थे. मुझे कहने लगे, `अरे ये अख़बार देखा
की नहीं’ और मेरे हाथ में नागपुर का एक मशहूर अख़बार थमा दिया और बोले, `पढो क्या
छपकर आया है तुम्हारे बारे में.’ मै तो हक्काबक्का रह गया. मेरे बारे में क्या
छपकर आ सकता है? लेकिन अख़बार हाथ में लेते ही सब बात स्पष्ट हो गयी. समाचार संघ के
बारे में था. मामाजी जानते थे की मै संघ का स्वयंसेवक हूँ. इसीलिए उन्होंने कहा
था, `तुम्हारे बारे में कुछ छपा है.’ मैंने समाचार पढ़ा. पहले पन्ने पर बिलकुल बड़े
अक्षरों में बड़ा सा समाचार- लीड स्टोरी -छपा था, `सरसंघचालक पद के लिए संघ कार्यालय
में घमासान’. अगर उस अख़बार के वो अंक आज होंगे तो आज भी देखने को मिल सकता है. वह
समाचार पढकर मै तो लोटपोट हो गया. उसमे लिखा था. संघ के महल स्थित कार्यालय में
सरसंघचालक पद को लेकर बालासाहब देवरस, आबाजी थत्ते, भाउराव देवरस, दत्तोपंत
ठेंगडी, मोरोपंत पिंगले इनमें जमके हातापाई हुई. उसका बहुत मजेदार वर्णन भी था.
कुछ पासपोर्ट साइज़ छायाचित्र भी थे इन लोगो के. मुझे हसते देख मामाजी पूछने लगे,
क्या हुआ? मैंने कहा, `मामाजी मै कल ही महल संघ कार्यालय गया था. वहां आबाजी थत्ते
से मिला. अंदर के कमरे में बालासाहब विश्राम कर रहे थे और बाकि जो नाम इस समाचार
में है वे लोग तो नागपुर में है ही नहीं. तो कल कार्यालय में ये हातापाई हुई
कैसे?’ संघ का इतिहास इस बात का गवाह है की जिनके नाम इस समाचार में थे उनमे से
कोई भी बाद में संघ का सरसंघचालक नही बना और ये
सारे ही ज्येष्ठ कार्यकर्ता आखिरी साँस तक संघ का काम करते रहे.
`The Caravan’ पत्रिका में छपे स्वामी असीमानंद के साक्षात्कार की खबर
सुनकर और उसपर छिड़ी बहस देखकर ३०-३५ साल पुरानी ये सारी बाते याद आई. कहते है की
गोलवलकर गुरूजी का दीनदयाल शोध संस्थान में हवन करते हुए लिया गया छायाचित्र प्रकाशित
कर यह चर्चा चलाई गई थी की संघ आगजनी की घटनाओं में पाया गया है. संघ पर पाबंदी के
समय कार्यालय के भंडार में मिली छोटी छोटी लकड़ी की छुरिकाएं दिखाकर तलवारें होने
के समाचार भी छपे थे. सुदर्शन जी और बाद में भागवत जी सरसंघचालक नियुक्त हुए तब भी
उसके पहले कुछ दिन तरह तरह की खबरे चलती सबने अनुभव की है. संघ के बारे में मनगढ़ंत
बातें लिखना, बोलना प्रसार माध्यमों की आदत सी है. और आज तो चुनावों का वातावरण है
और सत्ता की अपार लालसा और सत्ता हाथ से खिसकने की पूरी पूरी संभावना देखकर यह
पुरानी आदत क्रूर और विषमय हो गई है. संघ के विचारों पर टिकाटिप्पणी लोग अब सुनते
नहीं है, संघ के काम के बारे में ऊँगली दिखाने लायक कुछ मिलता नहीं है, संघ
नेतृत्व को फंसाने के लिए कुछ मिलता नहीं है; और इसलिए अब उनपर घिनौने मनगढंत आरोप
करना और जितना हो सके कुछ आशंकाओं के बिज समाज में बो देना यही संघ और
हिंदुत्वविरोधियों के लिए बचा है. असीमानंद का यह कथित साक्षात्कार उसी प्रयास का
एक भाग है.
इसी विषय पर एक चैनल पर
चर्चा चल रही थी. भाजपा के किसी नेता ने पूछा की, जेल के अंदर आप के बिरादरी के
किसी पत्रकार ने साक्षात्कार कैसे किया? यह साक्षात्कार करने के लिए क्या हथकंडे
अपनाए गए? तो चर्चा में सहभागी दो पत्रकार तुरंत उनपर टूट पड़े और पत्रकारिता में
आजकल बहुत लोकप्रिय वाक्य उस पूछनेवाले पर उन्होंने उछाल दिया- don’t shoot the messenger. क्या बस इतना कहने मात्र से आप पाक-साफ हो जाते है? क्या किसी पत्रकार की
ईमानदारी, उसका मकसद, उसके हथकंडे, उसके संबंध आदि के बारे में सोचना, समझना गलत
है? क्या किसी पत्रकार की लेखनी से या मुख से आया हुआ शब्द ब्रम्हसत्य मान लेना
चाहिए? अगर गलत मकसद या गलत तरीके से कोई स्टोरी बनाई जाती है तो उसकी authenticity और intention शक के घेरे में नही आने चाहिए?
दूसरी बात यह की, इन बड़े
बड़े चैनलों को और उन्होंने पाले हुए पत्रकारों को किसी के सही या गलत कृतियों या
विचारों की आलोचना का कोई नैतिक अधिकार है? बहुत जादा बुद्धिमानी या खोज आदि न
करते हुए भी एक सीधासाधा सवाल मन में उठता है, इन लोगो को इतना पैसा कहाँ से मिलता
है? इन चैनलों का सारा मेंटेनन्स कैसे होता है? लाखो रुपयों के तनख्वा, अलग अलग
नामो से उससे भी अधिक पैसा कैसे दे सकते है? कैसे मिलता है? उत्तर मिलेगा की, हम
कोई चोरी नही करते, बाकायदा अधिकृत रूप से हमे सब कुछ मिलता है. प्रश्न तो है की
इसका इंतजाम कैसे होता है. मन लीजिये की विज्ञापनों द्वारा सब पैसा मिलता है?
लेकिन विज्ञापनों का रेट तो चैनल ही तय करते है ना? तो फिर यह एक चैन बन जाती है.
चैनल चलाने के लिए पैसा चाहिए, उसके लिए विज्ञापन, उसके रेट वही तय करेंगे, उसकी
पूर्ति कंपनियां करेंगी तो अपने उत्पादनों के दाम ये कंपनियां दो गुना से ५०-६०
गुना भी रखेंगी. याने ये शाम्पू, साबुन, बिस्कुट, गाड़ियाँ, कपडों से लेकर सैकड़ो
वस्तुओ और सेवाओं में लगी कंपनिया हमारे और आपके जेब से ही पैसा निकाल कर चैनलों
को देती है. इसका मतलब यह की हमारे पैसो से ही इन चैनलों और पत्रकारों की सारी
चकाचौंध, उनकी सारी खोज और उनकी बौद्धिक चर्चाएँ चलती है. और इसी चक्र के परिणाम
स्वरूप महंगाई भी बढती है. क्या कभी किसी चैनल ने कीमते तय करने के संदर्भ में कोई
सार्थक बहस की है? अगर नहीं तो इन्हें क्या नैतिक अधिकार बनता है की वो इस देश का
भाग्यविधाता बने और निजी जीवन की आहुति देकर देश और समाज सेवा में रत लोगो और
संस्थाओ पर ऊँगली उठाएं?
- श्रीपाद कोठे
- नागपुर
- सोमवार, १० फरवरी २०१४
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