शुक्रवार, २८ फेब्रुवारी, २०१४

निरंतर चलनेवाली जीवमान प्रक्रिया है `धर्म'

(भारतीय शिक्षण मंडल के वार्षिकांक में प्रकाशित लेख.)

निरंतर चलनेवाली जीवमान प्रक्रिया है `धर्म'

हम सब मनुष्य है. सुख-दुख, आनंद और अवसाद, आशा और हताशा ऐसी अनेकानेक भावनाओं का अनुभव करते है. उनको व्यक्त भी करते है. इन भावनाओं को अनुकूल बनाने का प्रयास भी करते है. हमारी कई जरूरते होती है. हम उन्हें पुरा करने की कोशीश करते है. वह पुरी होती है तब समाधान होता है और नहीं होती तब कुंठा का अनुभव करते है. भावनाओं और जरूरतों की इस आबाधाबी में हमें स्वयं की और औरो की आवश्यकता होती है. हम स्वयं को स्वयं के साथ और स्वयं को औरो के साथ जुड़ा हुआ और पूरक देखना चाहते है. हम अगर स्वयं के साथ अथवा औरो के साथ बिखराव का अनुभव करते है तो कुछ भी करने में असमर्थ हो जाते है. यह असमर्थता केवल शारीरिक कृति के संबंध मे ही नहीं, अपितु मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक कृति के संबंध में भी दिखाई देने लगती है. इस प्रकार का बिखराव ना हो और कर्मों में असमर्थता ना उत्पन्न हो इस दृष्टी से `समाज’ नामक व्यवस्था का विकास हुआ. यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलनी चाहिए. यह अनिवार्य है. घोर व्यक्तिवादी मनुष्य भी समाज और उसका सुचारू रूप से चलना आवश्यक मानता है. आज हम ऐसे घोर व्यक्तिवादी बहुत बड़ी मात्रा में देखते है. व्यक्तिवाद, व्यक्तिस्वतंत्रता, मै यही उनका विचार होता है. लेकिन उन्हें भी अपेक्षा होती ही है की- दूरभाष ठीक चले, रेलगाड़ियाँ अच्छी हो और समय पर चलें, कचरे के ढेर साफ होते रहे, बाजारों में सबकुछ उपलब्ध हो और दाम भी योग्य रहें, चैन से सो सके, अपने घर में चोरी न हो, हमारा जीवन सुरक्षित रहे, हम चाहे जितना शोर मचाये लेकिन हम चाहे तब शांति रहे. ऐसी कई बातें गिनाई जा सकती है. इसमें जिन बातो की अपेक्षा करते है उसे ये लोग अपना अधिकार मानते है. और जिनके सहारे ये अपेक्षाएं पूर्ण हो सकती है उनका इन अपेक्षाओं को पूर्ण करना यह उनका कर्तव्य मानते है. जिनसे अपेक्षा की जाती है वह अगर कहें की, आपकी अपेक्षाओं को पूर्ण करना मेरा कर्तव्य नहीं है; या यूँ कहें की- मेरे कर्तव्य का निर्धारण करनेवाले आप कौन हो, मै खुद तय करूँगा मेरा कर्तव्य क्या है, या फिर यूँ की- मेरे भी कुछ अधिकार है और उसे मै प्राथमिकता और प्रधानता दूंगा. इस स्थिति का समाधान क्या होगा और समाधान कौन निकालेगा? यह तो अजीबोगरीब परिस्थिति उत्पन्न होगी. इस स्थिति में काम नहीं चलेगा. आज हम कभी कभी इस स्थिति का अनुभव व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर करते है.

कानून और नियम बनाकर इस स्थिति का समाधान खोजने की कोशीश अक्सर की जाती है. यह कानून और नियम भंग करके अव्यवस्था उत्पन्न ना हो इसलिए न्यायव्यवस्था और दंडविधान का प्रावधान होता है. किन्तु यह कानून और नियम भी औरों का विचार किये बगैर तथा औरों के प्रति सहानुभूति के बगैर ना तो बनाएँ जा सकते है ना उनका पालन और क्रियान्वयन हो सकता है. कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार के खिलाफ जो महाआंदोलन हुआ वह इस बात का जीताजागता उदहारण है. कितना बड़ा आंदोलन हुआ, बड़ी मात्रा में जागृति भी हुई, सारी संसद ने विशेष अधिवेशन बुलाकर एक आवाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता जताई और कानून बनाने का संकल्प भी किया. लेकिन दीर्घ काल तक कानून नहीं बन पाया. अन्यही ऐसे कई उदहारण देखने को मिलते है. दागी जनप्रतिनिधियों के संबंध में, या राजनीतिक पार्टियों को सूचना कानून के अंतर्गत लाने के संबंध में तो; कानून तैयार करनेवाली व्यवस्था और उसके सुयोग्य क्रियान्वयन की देखरेख करनेवाली व्यवस्था आमनेसामने खडी हो गयी है. दो संरचनाओं ने मिलकर समाज को एकसाथ रखने की और चलाने की जिनकी जिम्मेवारी है उनमे ही जुड़ाव और पूरकता की जगह अगर टकराव और बिखराव रहता है तो समाज का क्या होगा?

मानवी जीवन के कई पहलुओं में इस प्रकार की स्थिति देखने को मिलती है. चिकित्सक और रोगी में टकराव, महिला और पुरुष में टकराव, अमिर और गरीब में टकराव, शिक्षार्थी और अध्यापकों में टकराव, शासन और प्रशासन में टकराव, गावों और शहरों में टकराव, कृषि और उद्योगों में टकराव, विज्ञानं और अध्यात्म में टकराव. ऐसा क्यूँ होता है? एक तो आपसी विश्वास का अभाव और दुसरा अपने अधिकारों का आग्रह. विश्वास यह एक वस्तु नहीं, एक प्रक्रिया है. उसके भी आगे वह chain reaction है. प्रारंभ में विश्वास रखना पड़ता है. उसके लिए आत्मविश्वास और धैर्य की जरुरत होती है. उसके बाद जिस पर विश्वास रखा गया उसकी ये जिम्मेवारी होती है की वह विश्वास तोड़ने के बजाय उसे सार्थ बनाएँ. फिर विश्वास बढ़ता है. दुसरी बार थोड़ी सहजता से विश्वास रख सकते है. इसी प्रक्रिया से विश्वास बढ़ता और सशक्त होता जाता है. यह प्रक्रिया रूकती नहीं है, वह आखिर तक चलती रहनी चाहियें; यह उस प्रक्रिया की विशेषता है. इसके विपरीत अगर होता है तो विश्वास ख़त्म हो जाता है. उसे फिर उत्पन्न करने की भी यही प्रक्रिया है. उसे फिर से प्रारंभ करना पड़ता है. इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों की सहभागिता अनिवार्य है. लेकिन फिर प्रश्न उत्पन्न होता है की, विश्वास क्यूँ रखा जाएँ और उस विश्वास को क्यूँ निभाया जाएँ? जब तक दोनों पक्षों को एक दुसरे के प्रति स्नेह और लगाव नहीं लगता, विश्वास की यह प्रक्रिया प्रारंभ ही नहीं होती. अधिकारों के आग्रह के संबंध में भी यही निष्कर्ष निकालना पड़ता है की, जब तक `मै’ की बजाय `हम’ का अनुभव नहीं होता तब तक अधिकारों की ही बात चलती है. बाकि तो छोड़ दीजियें, मातापिता या परिवार का कोई सदस्य अगर अधिकारों की बात करते है तो परिवार में अशांति उत्पन्न होना अवश्य है. अधिकार और कर्तव्य की यह प्रक्रिया भी दोनों पक्षों की सहभागिता चाहती है. हर किसी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए की दुसरे के अधिकार की रक्षा हो रही है या नहीं. अधिकार नाम की बात गलत नहीं है. लेकिन उसका ख्याल रखने की जिम्मेवारी स्वयं की नहीं दूसरों की है. जब वह जिम्मेवारी नहीं निभाई जाती तब टकराव उत्पन्न होता है. प्रश्न फिर वही उत्पन्न होता है की, दूसरों के अधिकार की रक्षा का ध्यान मै क्यूँ रखू? यह प्रक्रिया भी अंत तक चलनी चाहिए लेकिन, आपसी एकत्व की अनुभूति के अभाव में वह नहीं हो पाता.

विश्वास और अधिकार रक्षा के लिए जो एकत्व की अनुभूति चाहिए, वह कैसे हो यह मूल प्रश्न है. दैनंदिन जीवन मे, रोज के कामो मे तो एकत्व की जगह विभिन्नताही दिखाई पडती है. हरेक का रुपरंग तो अलग है ही, साथ साथ जरुरते- आदते- विचार- भावनाएं- अपेक्षाएं- रुचियाँ- खामियाँ- कौशल- सब कुछ अलग अलग है. अगर कहीं कुछ मेल खा जाता है तो उस बातों में स्तर विभिन्न है. लेकिन यह विभिन्नताएं बाह्य प्रकृति का लक्षण है. सब प्रकार की विविधताओं के बिच भी आंतर प्रकृति में एकताही अनुभूत होती है. उसमे भी एक अजीब बात है. आंतर प्रकृति की दुख, वेदना, अभाव, त्रासदी अन्याय यह बातें एकत्व का अहसास कराती है. लेकिन सुख, आनंद, उल्लास आदि बातें एकत्व के स्थान पर ईर्ष्या, द्वेष, ऊँचनिचता ऐसे भाव पैदा करती है. एकत्व उत्पन्न करने के लिए भी प्रयास किये जाते है. उसका थोडाबहुत परिणाम तो होता है. किन्तु स्थायी और आश्वस्त करनेवाला परिणाम कम होता है. इसीलिए हम देखते है की, त्यौहारों में लोग एकत्र आते है, घुमने फिरने जाते है, खातेपिते है, एकदूसरे की कुछ मदद भी कर लेते है. लेकिन इतना सब होने के बाद भी आपस में झगड़े, टकराव, मनमुटाव, पीठ पीछे बातें करना, एक दुसरे की टांग खींचना, आपस में टांग अडाना यह भी होता है. कई बार बहुत घुलेमिले लोग भी बिखर जाते है. रिश्तेनाते, दोस्ती टूट जाती है. इतनाही नहीं इसमें से बड़ी मात्रा में कटुता भी उत्पन्न होती है.

इस पुरे विश्लेषण को हम संक्षेप में यूँ रख सकते है- आपसी एकत्व की अनुभूति के अभाव में संसार में सब कुछ या तो रुक जाएगा, या फिर अव्यवस्था की स्थिति होगी. एकत्व की अनुभूति जितनी मात्रा में हो उतनी मात्रा में मनुष्य जीवन सुचारू रूप से चलेगा. उतनी मात्रा में सुख-शांति का अनुभव होगा. लेकिन सहजता से होनेवाला अनुभव तो भेदों का ही है. एकत्व उत्पन्न करनेवाले प्रयासों का परिणाम भी अपेक्षाकृत नहीं है. तो फिर प्रश्न उत्पन्न होता है की, सुख-शांतिपूर्ण मनुष्य जीवन के लिए अपरिहार्य इस प्रकार की इस एकता का अहसास कैसे होगा? हिन्दू चिंतन यह कहता है की, यह एकता उत्पन्न करने की आवश्यकता ही नहीं है. यह एकताही विद्यमान है. विभिन्न चीजों को एक करने के प्रयास विफल होंगे ही. अगर चीजे अलग अलग है तो उसमे एकत्व नहीं हो सकता. हमें एकत्व की चाह है, उसकी धुंदली ही क्यों न हो, लेकिन अनुभूति के बगैर हम जी ही नहीं सकते. बस बात तो केवल इतनी है की किसी अनजाने कारण से हम इस एकत्व को भूल गए है. हमें उसे फिर से केवल मन में जगाना है.

एकत्व कहते ही हमारे मन में कुछ विशिष्ट चित्र उत्पन्न होता है. सब लोग एक जैसा पहनावा करें, सब लोग एक साथ खाएं, सब लोग एक साथ रहें, सब लोग एकही बोली बोले, सब लोग समान रूप से सोचें, सब लोग समान रूप से उपासना करें, स्वयं की रूचि- अरुचि- जरूरतें- इनका बलिदान करें. इसमें होता यह है की, जो लोग प्रभावशाली है, ताकतवर है उनकी ही बात सब पर लागु होती है और वह बात सब के मन की भावना के रूप में प्रस्तुत की जाती है. हर कोई स्वयं में उसके अनुसार परिवर्तन करें ऐसी अपेक्षा की जाती है. एकत्व की जो भी प्रमाणिक बात होती है या एकत्व के जो भी प्रामाणिक प्रयास होते है उनमे अधिकतर इसी बात को देखा जा सकता है. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था इसका एक उदहारण है. हमारी कुटुंब व्यवस्था में भी यही देखने को मिलता है. उदाहरण के तौर पर सब लोगों के साथ अधिक से अधिक समय बिताने की बात को लें. जो प्रतिभावान लोग होते है, साहित्यिक या कलाकार होते है, लेखक होते है, वैज्ञानिक होते है, साधक होते है; उनकी अपनी अलग जरूरतें होती है. सब के साथ जादा समय बिताने के बजाय एकांत में समय बिताना उनकी जरुरत होती है. या फिर पत्नी को इच्छा हो सकती है की पति अधिक समय अपने साथ बिताएं, रोज घुमाने ले जाएँ या साथ घुमने चलें आदि. लेकिन व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए क्या यह पूरक हो सकता है? किसी कला या साहित्य से खुद को जोडना, बगीचे में या खेती में काम करना, साधना करना, सामाजिक कामों में भाग लेना ऐसी चीजों के लिए समय व्यतीत करना क्या गलत है? लेकिन ऐसी बातों पर झगडे होते है. तो, कभी कभी व्यक्तिवाद के अतिरेक के कारण मेल बिठाना मुश्किल होता है और कभी कभी व्यक्ति के न्यायपूर्ण जरूरतों को दबाने की स्थिति उत्पन्न होती है.

इस दुविधा से निपटने के लिए हमें एकत्व के सही अर्थ को समझना पडेगा. एकत्व का सही आशय है आंतरिक  एकत्व. एकत्व यह मनुष्य के अंतर का भाव है. उसे बाहरी रूपों या गुणों पर थोपना गलत होगा. जब तक हम बाहर की बातें ही देखते और सोचते रहेंगे तब तक आंतरिक एकता की अनुभूति हम से दूर भागेगी. इसके दो अर्थ है- स्वयं के बारें में स्वयं की दृष्टी से सोचना और दूसरों के बारें में उन्ही की दृष्टी से सोचना. अर्थात- मुझे अगर पुस्तक पढने में रूचि है, या उस में मै रमता हूँ, वह मेरी जरुरत है तो मुझे उसी तरह से सोचना और व्यवहार करना चाहिए. और लोग पुस्तक पढने के विषय में या मेरे पुस्तक पढने के विषय में क्या सोचते है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं. लेकिन साथ ही कोई और अगर खानेपीने में आनंद का अनुभव करता है तो, मुझे उसका आदर करना चाहिए. मै अपना पुस्तक बाजु में रख दूँ यह दुसरे का आग्रह, या दूसरा अपना खानापीना दूर रखे यह मेरा आग्रह; यह दोनों बातें गलत कहनी पडेगी. स्वयं के और दूसरों के अंतर के बारें में सोचना इसके लिए आवश्यक है. यही है आध्यात्मिकता. भगवान के बारे में सोचना यह आध्यात्मिकता नहीं है. स्वयं के और दूसरों के अंतर के बारे में सोचने में, समझने में जहाँ तक भगवान की सहायता होती है, स्वागतयोग्य है. अन्यथा वह मात्र एक आदत बनकर रह जाएगी. इस आध्यात्मिकता का प्रमाण जितना अधिक होगा उतना ही व्यक्तिजीवन, समाजजीवन, राष्ट्रजीवन और विश्वजीवन शांति से और सुचारू रूप से चलेगा. इसका अभाव कुंठा और अशांति को जन्म देगा.

लेकिन एक प्रश्न फिर भी सामने खडा होता है. वह है- स्वयं की आध्यात्मिकता और लौकिक आवश्यकताएं इनका मेल किस प्रकार बिठाना? स्वयं की आध्यात्मिकता और दूसरों की आध्यात्मिकता इनका मेल कैसे बिठाना? स्वयं की आध्यात्मिकता और दूसरों की लौकिक आवश्यकताएं इनका मेल किस प्रकार बिठाना? स्वयं की लौकिक आवश्यकताएं और दूसरों की आध्यात्मिकता इनका मेल किस प्रकार बिठाना? इसके लियें कोई सार्थक उत्तर हो नहीं सकता. उसके लिए केवल एक मार्गदर्शक सूत्र हो सकता है. वह सूत्र है- क्या हम व्यापकता की ओर बढ रहे है? हमें व्यक्तिगत रूप से, सामूहिक रूप से, राष्ट्रीय रूप से, वैश्विक रूप से व्यापकता की ओर ले जाने वाली बातें, कृतियाँ योग्य है ऐसा समझना चाहिए. हमारे कर्मों से औरों को कोई नुकसान ना हो या तकलीफ ना हो यह सतत देखने की बात है. हर किसी को इसके लिए चौकन्ना रहना चाहिए. किन्तु संपूर्ण विश्व इस प्रकार सोचेगा या इस दिशा में प्रयास करेगा यह तो संभव नहीं है. इसीलिए कई व्यवस्थाओं का निर्माण होता है. लेकिन यह व्यवस्थाएं व्यापकता की ओर बढने में सहायता करनेवाली होनी चाहिए. इसीलिए लचिली भी होनी चाहिए. यही धर्म है.

धर्म किसी व्यवस्था का नाम नहीं है. न ही वह कोई निश्चित नियम और रचना है. धर्म तो एक जीवमान प्रक्रिया का नाम है. स्वयं के और औरों के अंतर को सोचते सोचते और समझते समझते इस संपूर्ण अस्तित्व के अंतर को सोचने और समझने की प्रक्रिया का नाम है धर्म. इस संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो जाना यह उस प्रक्रिया का चरम बिंदु है. तब तक यह प्रक्रिया चलती रहती है, रहनी चाहिए. स्वयं की और दूसरों की आध्यात्मिकता और लौकिकता इनका मेल बिठाते बिठाते व्यापकता की ओर बढने की जो निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है उसीका नाम है धर्म. यह धर्म व्यक्तिजीवन, समाजजीवन, राष्ट्रजीवन, विश्वजीवन का आधार है. उसे ठीक से समझकर चरितार्थ करना यही विश्वशांति की और सहअस्तित्व की अनिवार्य आवश्यकता है.

- श्रीपाद कोठे
नागपूर

सोमवार, १० फेब्रुवारी, २०१४

प्रसार माध्यम और संघ


१९८० के आसपास की बात होगी. मै छात्र था और एक सायं शाखा का गणशिक्षक. नागपुर का विजयादशमी उत्सव महत्व का होता है और बड़ा भी. उस कार्यक्रम में अधिक से अधिक संख्या में स्वयंसेवक उपस्थित रहे इसके लिए विशेष प्रयास भी किये जाते है. अपने गण के अधिक स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में कार्यक्रम में उपस्थित हो ऐसा प्रयास गणशिक्षक करते थे. स्वाभाविक ही स्वयंसेवकों का गणवेश पूर्ण करने की जिम्मेवारी भी गणशिक्षक पर आती थी. गणवेश का सामान संघ के कार्यालय में ही मिलता है. किसको क्या चाहिए, किस स्वयंसेवक के पास किस चीज की कमी है यह लिखकर सबका वह सामान खरीदने के लिए कार्यालय गया था. विजयादशमी उत्सव के २-४ दिन पूर्व. उस समय बालासाहब देवरस संघ के सरसंघचालक थे. उनके और उनके पूर्व दुसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी के स्वीय सहायक रहे डा. आबाजी थत्ते से हमारे पारिवारिक संबंध थे. जब नागपुर में रहते थे तब उनका रहना संघ के महल कार्यालय में ही रहता था. मै गणवेश का सामान खरीदने गया तब वो नागपुर में ही थे. स्वाभाविक ही उनसे मिलने गया. उनसे जो मिले होंगे उन्हें पता होगा की वो बहुत हंसीमजाक, गपशप करनेवाले थे. थोडा समय उनसे बातचीत हुई, खिलखिलाना आदि हुआ. गणवेश का सामान खरीदा और घर वापस आया.

दुसरे दिन शाम को माँ ने कुछ घरेलू सामान ले आने को कहा. पास वाले एक किराना दुकान पर गया. उसे `झोपडी का दुकान’ कहते थे. और वो दुकान चलाने वाले थे मामाजी. दुकान में गया तो थोड़ी भीड़ थी. मै खड़ा था. मामाजी अच्छे बोलचालवाले आदमी थे. मुझे कहने लगे, `अरे ये अख़बार देखा की नहीं’ और मेरे हाथ में नागपुर का एक मशहूर अख़बार थमा दिया और बोले, `पढो क्या छपकर आया है तुम्हारे बारे में.’ मै तो हक्काबक्का रह गया. मेरे बारे में क्या छपकर आ सकता है? लेकिन अख़बार हाथ में लेते ही सब बात स्पष्ट हो गयी. समाचार संघ के बारे में था. मामाजी जानते थे की मै संघ का स्वयंसेवक हूँ. इसीलिए उन्होंने कहा था, `तुम्हारे बारे में कुछ छपा है.’ मैंने समाचार पढ़ा. पहले पन्ने पर बिलकुल बड़े अक्षरों में बड़ा सा समाचार- लीड स्टोरी -छपा था, `सरसंघचालक पद के लिए संघ कार्यालय में घमासान’. अगर उस अख़बार के वो अंक आज होंगे तो आज भी देखने को मिल सकता है. वह समाचार पढकर मै तो लोटपोट हो गया. उसमे लिखा था. संघ के महल स्थित कार्यालय में सरसंघचालक पद को लेकर बालासाहब देवरस, आबाजी थत्ते, भाउराव देवरस, दत्तोपंत ठेंगडी, मोरोपंत पिंगले इनमें जमके हातापाई हुई. उसका बहुत मजेदार वर्णन भी था. कुछ पासपोर्ट साइज़ छायाचित्र भी थे इन लोगो के. मुझे हसते देख मामाजी पूछने लगे, क्या हुआ? मैंने कहा, `मामाजी मै कल ही महल संघ कार्यालय गया था. वहां आबाजी थत्ते से मिला. अंदर के कमरे में बालासाहब विश्राम कर रहे थे और बाकि जो नाम इस समाचार में है वे लोग तो नागपुर में है ही नहीं. तो कल कार्यालय में ये हातापाई हुई कैसे?’ संघ का इतिहास इस बात का गवाह है की जिनके नाम इस समाचार में थे उनमे से कोई भी बाद में संघ का सरसंघचालक नही बना और ये  सारे ही ज्येष्ठ कार्यकर्ता आखिरी साँस तक संघ का काम करते रहे.

`The Caravan’ पत्रिका में छपे स्वामी असीमानंद के साक्षात्कार की खबर सुनकर और उसपर छिड़ी बहस देखकर ३०-३५ साल पुरानी ये सारी बाते याद आई. कहते है की गोलवलकर गुरूजी का दीनदयाल शोध संस्थान में हवन करते हुए लिया गया छायाचित्र प्रकाशित कर यह चर्चा चलाई गई थी की संघ आगजनी की घटनाओं में पाया गया है. संघ पर पाबंदी के समय कार्यालय के भंडार में मिली छोटी छोटी लकड़ी की छुरिकाएं दिखाकर तलवारें होने के समाचार भी छपे थे. सुदर्शन जी और बाद में भागवत जी सरसंघचालक नियुक्त हुए तब भी उसके पहले कुछ दिन तरह तरह की खबरे चलती सबने अनुभव की है. संघ के बारे में मनगढ़ंत बातें लिखना, बोलना प्रसार माध्यमों की आदत सी है. और आज तो चुनावों का वातावरण है और सत्ता की अपार लालसा और सत्ता हाथ से खिसकने की पूरी पूरी संभावना देखकर यह पुरानी आदत क्रूर और विषमय हो गई है. संघ के विचारों पर टिकाटिप्पणी लोग अब सुनते नहीं है, संघ के काम के बारे में ऊँगली दिखाने लायक कुछ मिलता नहीं है, संघ नेतृत्व को फंसाने के लिए कुछ मिलता नहीं है; और इसलिए अब उनपर घिनौने मनगढंत आरोप करना और जितना हो सके कुछ आशंकाओं के बिज समाज में बो देना यही संघ और हिंदुत्वविरोधियों के लिए बचा है. असीमानंद का यह कथित साक्षात्कार उसी प्रयास का एक भाग है.

इसी विषय पर एक चैनल पर चर्चा चल रही थी. भाजपा के किसी नेता ने पूछा की, जेल के अंदर आप के बिरादरी के किसी पत्रकार ने साक्षात्कार कैसे किया? यह साक्षात्कार करने के लिए क्या हथकंडे अपनाए गए? तो चर्चा में सहभागी दो पत्रकार तुरंत उनपर टूट पड़े और पत्रकारिता में आजकल बहुत लोकप्रिय वाक्य उस पूछनेवाले पर उन्होंने उछाल दिया- don’t shoot the messenger. क्या बस इतना कहने मात्र से आप पाक-साफ हो जाते है? क्या किसी पत्रकार की ईमानदारी, उसका मकसद, उसके हथकंडे, उसके संबंध आदि के बारे में सोचना, समझना गलत है? क्या किसी पत्रकार की लेखनी से या मुख से आया हुआ शब्द ब्रम्हसत्य मान लेना चाहिए? अगर गलत मकसद या गलत तरीके से कोई स्टोरी बनाई जाती है तो उसकी authenticity और intention शक के घेरे में नही आने चाहिए?

दूसरी बात यह की, इन बड़े बड़े चैनलों को और उन्होंने पाले हुए पत्रकारों को किसी के सही या गलत कृतियों या विचारों की आलोचना का कोई नैतिक अधिकार है? बहुत जादा बुद्धिमानी या खोज आदि न करते हुए भी एक सीधासाधा सवाल मन में उठता है, इन लोगो को इतना पैसा कहाँ से मिलता है? इन चैनलों का सारा मेंटेनन्स कैसे होता है? लाखो रुपयों के तनख्वा, अलग अलग नामो से उससे भी अधिक पैसा कैसे दे सकते है? कैसे मिलता है? उत्तर मिलेगा की, हम कोई चोरी नही करते, बाकायदा अधिकृत रूप से हमे सब कुछ मिलता है. प्रश्न तो है की इसका इंतजाम कैसे होता है. मन लीजिये की विज्ञापनों द्वारा सब पैसा मिलता है? लेकिन विज्ञापनों का रेट तो चैनल ही तय करते है ना? तो फिर यह एक चैन बन जाती है. चैनल चलाने के लिए पैसा चाहिए, उसके लिए विज्ञापन, उसके रेट वही तय करेंगे, उसकी पूर्ति कंपनियां करेंगी तो अपने उत्पादनों के दाम ये कंपनियां दो गुना से ५०-६० गुना भी रखेंगी. याने ये शाम्पू, साबुन, बिस्कुट, गाड़ियाँ, कपडों से लेकर सैकड़ो वस्तुओ और सेवाओं में लगी कंपनिया हमारे और आपके जेब से ही पैसा निकाल कर चैनलों को देती है. इसका मतलब यह की हमारे पैसो से ही इन चैनलों और पत्रकारों की सारी चकाचौंध, उनकी सारी खोज और उनकी बौद्धिक चर्चाएँ चलती है. और इसी चक्र के परिणाम स्वरूप महंगाई भी बढती है. क्या कभी किसी चैनल ने कीमते तय करने के संदर्भ में कोई सार्थक बहस की है? अगर नहीं तो इन्हें क्या नैतिक अधिकार बनता है की वो इस देश का भाग्यविधाता बने और निजी जीवन की आहुति देकर देश और समाज सेवा में रत लोगो और संस्थाओ पर ऊँगली उठाएं?

- श्रीपाद कोठे
- नागपुर
- सोमवार, १० फरवरी २०१४

शनिवार, ८ फेब्रुवारी, २०१४

काही अनुभव आणि प्रसार माध्यमे

गेल्या आठवड्यात `इंडिया टुडे’च्या संपादक मंडळातील एका ज्येष्ठ संपादकांची भेट झाली. गप्पांच्या ओघात त्यांनी एक फार छान गोष्ट सांगितली. गुजरातमध्ये संत मुरारीबापू यांच्या रामकथेचे आयोजन करण्यात आले होते. त्यासाठी त्यांना आमंत्रण होते आणि ते त्याला गेले होते. त्यानंतर श्री. मुरारीबापू यांच्या गावीही ते गेले. त्यांनी सांगितले बापूंची राहणी अतिशय साधी आहे. त्यांच्या कुटुंबाचा चरितार्थ त्यांच्या शेतीवर चालतो. बापू देशविदेशात रामकथा, भागवतकथा करतात त्यातून उभा राहणारा पैसा, ज्या कामासाठी ती कथा आयोजित केली असेल त्यासाठी देऊन टाकतात. स्वत:ला काहीही नाही. एकदा कोणीतरी त्यांना म्हणाले, `बापू तुम्ही समाजाला चांगलं करण्याचा प्रयत्न करता. पण तुमच्या या भागातच अस्वच्छता खूप आहे. लोक उघड्यावरच शौचाला जातात. त्यासाठी तुम्ही काय करणार?’ बापूंनी त्याला धन्यवाद दिले आणि शौचालये उभारण्यासाठी रामकथा केली. थोडेथोडके नव्हे, तब्बल पाच कोटी रुपये गोळा झाले. श्री. मुरारीबापूंनी ते सगळे शौचालयांसाठी देऊन टाकले. आज त्या भागात कुठेही अस्वच्छता दिसत नाही.

`इंडिया टुडे’च्या ज्येष्ठ संपादकाने ही माहिती दिली. त्यामुळे त्याचा खरेखोटेपणा, त्याची अधिकृतता यावर शंका घेण्याचे कारण नाही. त्यांनी सांगितली असल्याने ती प्रचारकी थाटाची असण्याचेही कारण नाही. सहज काही महिन्यांपूर्वी झालेला वाद आठवला. नरेंद्र मोदी यांच्या एका विधानानंतर `राम की शौचालय’ असा एक वाद आमच्या सर्वतंत्रस्वतंत्र इलेक्ट्रोनिक प्रसार माध्यमांनी रंगवला होता. मुळात राम आणि शौचालय दोन्हीही आवश्यक आहेत. शरीरशुद्धीसाठी शौचालय आणि मनशुद्धीसाठी राम हेच हिंदुत्व आहे. पण शेंबड्या पोराला जे समजू शकते तेही समजण्याची क्षमता आज इलेक्ट्रोनिक प्रसार माध्यमांनी घालवलेली आहे. हिंदू धर्म, साधुसंत यांच्याबद्दल टीकाटिप्पणी करायला ही माध्यमे चढाओढ करतात. त्यातील खरेखोटेपणा, न्याय-अन्याय, हेतूंची शुद्धाशुद्धता काही क्षण बाजूला ठेवली तरी त्यांच्या मनातील आणि व्यवहारातील पक्षपात मात्र नक्कीच लपून राहण्यासारखा नाही. हा पक्षपात नसता तर `इंडिया टुडे’च्या संपादकांनी जी माहिती सांगितली तशा प्रकारची माहिती, तशी कामे समाजापर्यंत पोहोचवण्यासाठी त्या माध्यमांनी आवर्जून प्रयत्न केले नसते का? हिंदू धर्म, संस्कृती, समाज, संत यांचे एकांगी काळे चित्र निर्माण करण्याचे अन्यथा काय प्रयोजन असेल?
*********************************
अरुणाचल प्रदेशातील एका तरुण विद्यार्थ्याची काही दिवसांपूर्वी राजधानी दिल्लीत हत्या झाली. तो तरुण देखील सामान्य नव्हता तेथील आमदाराचा मुलगा होता. त्या प्रकरणाची बरीच चर्चा झाली. मतमतांतरे व्यक्त झालीत. सूचना करण्यात आल्या. राजकारणही झाले. देशात अजूनही वंशभेद आहे, अशीही टीका झाली. हे सारे राज्यघटनेच्या विपरीत असल्याचे तुणतुणेही वाजवून झाले. आपण खूप मोठे काम केले असे समाधान मानून घेत, आता ही समस्या संपली या कृतार्थतेने सगळे आपापल्या कामाला लागले. मनात प्रश्न येतो, या समस्या अशा संपतात का? याच्यावरील उपाय म्हणजे कायदा करणे असते का? आजकाल तर काहीही झाले की कायदा करा, अधिक कडक कायदा करा, कायद्यात सुधारणा करा, कायद्याची अंमलबजावणी करा. बास. आटोपले सगळे. खरे तर जगातल्या सगळ्याच्या सगळ्या समस्या या माणसाच्या क्षुद्रत्वाच्या, माणसाच्या कोतेपणाच्या, माणसाच्या लघुतेच्या समस्या आहेत. माणसाची व्यापकता, विशालता, उन्नत अवस्था हेच त्यावरील खरे उत्तर आहे. पण, व्यवहारातील व्यामिश्रता लक्षात घेता त्यासाठी कायदे वगैरेसारखे उपाय आवश्यक असतात. मात्र तेवढ्याने भागत नाही. माणसाचे क्षुद्रत्व, कोतेपणा आणि लघुता दूर करण्याचे प्रयत्न सतत चालू राहणे आवश्यक असते. त्याशिवाय कायदे वगैरेंचाही उपयोग नसतो. परंतु ही लघुता केवळ बोलून, चर्चा करून, लिहून, वाद घालून, सांगून, शिक्षेची भीती दाखवून किंवा इच्छाचिंतनाने दूर होत नाही. त्यासाठी शरीराला, मनाला, बुद्धीला, विचारांना, भावनांना हळूहळू तसे वळण लावावे लागते, लागावे लागते. ही एक दीर्घ, वेळखाऊ, कष्टीक, गुंतागुंतीची, वाटावळणांची, चढउताराची प्रक्रिया असते. त्यासाठी धीर, चिकाटी, शांतपणे काम करण्याची वृत्ती हे आवश्यक असते. आपल्याला दिसणाऱ्या आणि जाणवणाऱ्या अपार विविधतेसह व्यावहारिक जीवन जगतानाच, मनात मात्र आपण एक आहोत ही भावना निरंतर जोपासणे ही काही खायची बाब नाही. त्यासाठी अथक परिश्रम हवेत, प्रयत्न हवेत.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आणि समविचारी संघटनांनी गेली अनेक दशके अरुणाचल प्रदेशासह संपूर्ण ईशान्य भागात यासाठी अपार आणि अथक प्रयत्न आजवर केले आहेत, अजूनही करीत आहेत. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, विवेकानंद केंद्र, सेवा भारती, राष्ट्र सेविका समिती, विश्व हिंदू परिषद, संस्कार भारती आणि अन्यही अनेक संस्था-संघटना तेथे काम करीत आहेत. शिक्षण, आरोग्य, संस्कार, संस्कृतीसंवर्धन अशी अनेक कामे चालतात. शाळा, महाविद्यालये, आरोग्य केंद्रे, वसतिगृहे, विविध उत्सव महोत्सव, उपक्रम सतत सुरु असतात. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषदेने तर कित्येक वर्षांपूर्वीच `आंतरराज्य छात्र जीवन दर्शन प्रकल्प’ सुरु केला होता. ईशान्य भारताच्या विविध राज्यांमधील विद्यार्थ्यांना काही दिवस देशाच्या अन्य राज्यांमध्ये फिरवून आणायचे. तेथे स्थानिक कार्यकर्त्यांच्या घरी त्यांचा निवास, भोजन आदींची व्यवस्था करायची. त्यांना तेथील जीवनाची ओळख करून द्यायची. तसेच अन्य राज्यातील विद्यार्थांनी ईशान्य भारतात जाऊन यायचे, तेथील समाज, जगणे पाहायचे, समजून घ्यायचे; असा तो उपक्रम. या उपक्रमात हजारो तरुण-तरुणी सहभागी झाल्या आहेत. गेली काही वर्षे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाने ईशान्य भारतातील `सात भगिनी’ म्हणून ओळखली जाणारी राज्ये दत्तक घेतली आहेत. ज्या प्रांताने जे राज्य दत्तक घेतले आहे त्या प्रांतातील अधिकारी व कार्यकर्त्यांनी दत्तक घेतलेल्या राज्यात दरवर्षी जायचे. भेटीगाठी, माहितीचे आदानप्रदान, समस्या आणि त्या सोडवण्याविषयी चर्चा असा हा उपक्रम. तेथील कला संस्कृतीच्या संवर्धनासाठी संस्कार भारतीने सुरु केलेला ब्रम्हपुत्र महोत्सव लक्षणीय असतो. देशाच्या विविध भागात ईशान्य भारतातील विद्यार्थ्यांसाठी वसतिगृहे चालवण्यात येतात. राष्ट्र सेविका समितीतर्फे तर खास त्या भागातील मुलींसाठी वसतिगृहे चालवली जातात. जेथे जाण्यासाठी रेल्वेने तीन दिवस लागतात, इतक्या दूरच्या भागातील लोक आपल्या छोट्या छोट्या मुलीदेखील विश्वासाने या वसतिगृहात पाठवतात. त्या भागात या संघटनांनी केलेल्या कामाने हा विश्वास निर्माण झाला आहे.

वेगळेपणाची, अलगतेची भावना दूर व्हावी, जवळीक वाढावी, जीवनस्तर उंचावावा, भावनिक ऐक्य वाढीस लागावे याच उद्देशाने ही कामे चालतात. देशाच्या वेगवेगळ्या भागातील महिला-पुरुष संघ आणि अन्य संघटनांच्या आवाहनाला प्रतिसाद देऊन त्याच भागात जाऊन स्थायिक झाले आहेत. नुसते स्थायिक झालेले नाहीत तर तेथीलच झालेले आहेत. त्यात डॉक्टर, प्राध्यापक, शिक्षक, अभियंते, गृहिणी असे सारेच आहेत. काही कार्यकर्त्यांच्या तर दुसऱ्या, तिसऱ्या पिढ्या तिथे आहेत. हे लोक तेथील भाषा शिकले, तेथील राहणी, खानपान त्यांनी आत्मसात केले. काहींची तिकडील मुलामुलींशीच लग्नेही झाली आहेत. हे सारे सहज मात्र झालेले नाही. कार्यकर्त्यांनी त्यासाठी बलिदानही दिलेले आहे. तेही अनामपणे. नागपुरात तर अशाच एका कार्यकर्त्याच्या नावाने व्याख्यानमाला चालते. नारायण भिडे असे त्या तरुण कार्यकर्त्याचे नाव. ऐन विशीत समाजसेवेच्या भावनेने भारावून जाऊन नारायण तेथे गेला. देशविरोधी शक्तींनी आपला डाव साधला आणि एक दिवस सकाळी नारायण विहिरीत मृतावस्थेत आढळला. त्याच्या या बलिदानासाठी संघाने वा त्याच्या घरच्यांनी कधीही काहीही मागितले नाही. घरच्यांनी संघही सोडला नाही. उलट त्याच्या नावाने समाज जागरणासाठी व्याख्यानमाला सुरु केली. संघाची ही वृत्ती आहे, स्वयंसेवकांचा हा पिंड आहे. देशभक्ती, समाजसेवा हा व्यापार नसतो ही त्यांची भावना असते. ऐक्य म्हणजे काय, एकता कशी असते, ती कशी निर्माण होते, परस्पर विश्वास कसा निर्माण करायचा असतो या साऱ्याचा हा वस्तुपाठ आहे. मिझोराम आणि त्रिपुरा या भागातील रियांग जमातीच्या समस्या आणि त्यांचे विस्थापन समजून घेण्यासाठी १७-१८ वर्षांपूर्वी सुमारे आठवडाभर त्या भागात गेलो असताना या सगळ्याचा प्रत्यक्ष अनुभव मी घेतलेला आहे. दुर्दैव एवढेच की त्याबद्दल लिहिण्यास मात्र मला त्यावेळी माझ्या वरिष्ठांनी मनाई केली होती. संघ काही चांगले करतो यावर विश्वास ठेवायचा आणि त्याला प्रसिद्धी द्यायची हे कसे शक्य आहे? प्रसार माध्यमांची १७-१८ वर्षांपूर्वीची वृत्ती आजही कायम आहे. उलट वाईट अर्थाने त्यात वाढच झाली आहे.

यावर लगेच प्रश्न विचारला जाऊ शकेल की, असे आहे तर त्या भागातून भाजपचा एकही खासदार का निवडून येत नाही? खरे तर एवढे काम असूनही भाजपचा एकही खासदार निवडून येत नाही यातूनच या प्रयत्नांमागील निखळ हेतू स्पष्ट होतो. सेवा करायची, ऐक्य भावना निर्माण करायची आणि त्याचा लाभ ज्यांना मिळतो त्यांच्यावर आपली भूमिका लादून त्याला त्याप्रमाणे वागायला लावायचे हे संघ आणि समविचारी संघटना करीत नाहीत. शिक्षण, आरोग्य, निवास आदी सोयी करायच्या, आपुलकी निर्माण करायची आणि मनात राजकारण ठेवायचे ही त्यांची पद्धत नाही. पण जे मनाने आणि हेतूने इतके निखळ नसतात त्यांना हे समजूही शकत नाही आणि त्यांचा त्यावर विश्वासही बसू शकत नाही. प्रसार माध्यमांबद्दल तर बोलायलाच नको.

- श्रीपाद कोठे
- नागपूर
- शनिवार, ८ फेब्रुवारी २०१४