(भारतीय शिक्षण मंडल के वार्षिकांक में प्रकाशित लेख.)
निरंतर चलनेवाली जीवमान प्रक्रिया है `धर्म'
हम सब मनुष्य है. सुख-दुख, आनंद और अवसाद, आशा और हताशा ऐसी अनेकानेक भावनाओं का अनुभव करते है. उनको व्यक्त भी करते है. इन भावनाओं को अनुकूल बनाने का प्रयास भी करते है. हमारी कई जरूरते होती है. हम उन्हें पुरा करने की कोशीश करते है. वह पुरी होती है तब समाधान होता है और नहीं होती तब कुंठा का अनुभव करते है. भावनाओं और जरूरतों की इस आबाधाबी में हमें स्वयं की और औरो की आवश्यकता होती है. हम स्वयं को स्वयं के साथ और स्वयं को औरो के साथ जुड़ा हुआ और पूरक देखना चाहते है. हम अगर स्वयं के साथ अथवा औरो के साथ बिखराव का अनुभव करते है तो कुछ भी करने में असमर्थ हो जाते है. यह असमर्थता केवल शारीरिक कृति के संबंध मे ही नहीं, अपितु मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक कृति के संबंध में भी दिखाई देने लगती है. इस प्रकार का बिखराव ना हो और कर्मों में असमर्थता ना उत्पन्न हो इस दृष्टी से `समाज’ नामक व्यवस्था का विकास हुआ. यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलनी चाहिए. यह अनिवार्य है. घोर व्यक्तिवादी मनुष्य भी समाज और उसका सुचारू रूप से चलना आवश्यक मानता है. आज हम ऐसे घोर व्यक्तिवादी बहुत बड़ी मात्रा में देखते है. व्यक्तिवाद, व्यक्तिस्वतंत्रता, मै यही उनका विचार होता है. लेकिन उन्हें भी अपेक्षा होती ही है की- दूरभाष ठीक चले, रेलगाड़ियाँ अच्छी हो और समय पर चलें, कचरे के ढेर साफ होते रहे, बाजारों में सबकुछ उपलब्ध हो और दाम भी योग्य रहें, चैन से सो सके, अपने घर में चोरी न हो, हमारा जीवन सुरक्षित रहे, हम चाहे जितना शोर मचाये लेकिन हम चाहे तब शांति रहे. ऐसी कई बातें गिनाई जा सकती है. इसमें जिन बातो की अपेक्षा करते है उसे ये लोग अपना अधिकार मानते है. और जिनके सहारे ये अपेक्षाएं पूर्ण हो सकती है उनका इन अपेक्षाओं को पूर्ण करना यह उनका कर्तव्य मानते है. जिनसे अपेक्षा की जाती है वह अगर कहें की, आपकी अपेक्षाओं को पूर्ण करना मेरा कर्तव्य नहीं है; या यूँ कहें की- मेरे कर्तव्य का निर्धारण करनेवाले आप कौन हो, मै खुद तय करूँगा मेरा कर्तव्य क्या है, या फिर यूँ की- मेरे भी कुछ अधिकार है और उसे मै प्राथमिकता और प्रधानता दूंगा. इस स्थिति का समाधान क्या होगा और समाधान कौन निकालेगा? यह तो अजीबोगरीब परिस्थिति उत्पन्न होगी. इस स्थिति में काम नहीं चलेगा. आज हम कभी कभी इस स्थिति का अनुभव व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर करते है.
कानून और नियम बनाकर इस स्थिति का समाधान खोजने की कोशीश अक्सर की जाती है. यह कानून और नियम भंग करके अव्यवस्था उत्पन्न ना हो इसलिए न्यायव्यवस्था और दंडविधान का प्रावधान होता है. किन्तु यह कानून और नियम भी औरों का विचार किये बगैर तथा औरों के प्रति सहानुभूति के बगैर ना तो बनाएँ जा सकते है ना उनका पालन और क्रियान्वयन हो सकता है. कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार के खिलाफ जो महाआंदोलन हुआ वह इस बात का जीताजागता उदहारण है. कितना बड़ा आंदोलन हुआ, बड़ी मात्रा में जागृति भी हुई, सारी संसद ने विशेष अधिवेशन बुलाकर एक आवाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता जताई और कानून बनाने का संकल्प भी किया. लेकिन दीर्घ काल तक कानून नहीं बन पाया. अन्यही ऐसे कई उदहारण देखने को मिलते है. दागी जनप्रतिनिधियों के संबंध में, या राजनीतिक पार्टियों को सूचना कानून के अंतर्गत लाने के संबंध में तो; कानून तैयार करनेवाली व्यवस्था और उसके सुयोग्य क्रियान्वयन की देखरेख करनेवाली व्यवस्था आमनेसामने खडी हो गयी है. दो संरचनाओं ने मिलकर समाज को एकसाथ रखने की और चलाने की जिनकी जिम्मेवारी है उनमे ही जुड़ाव और पूरकता की जगह अगर टकराव और बिखराव रहता है तो समाज का क्या होगा?
मानवी जीवन के कई पहलुओं में इस प्रकार की स्थिति देखने को मिलती है. चिकित्सक और रोगी में टकराव, महिला और पुरुष में टकराव, अमिर और गरीब में टकराव, शिक्षार्थी और अध्यापकों में टकराव, शासन और प्रशासन में टकराव, गावों और शहरों में टकराव, कृषि और उद्योगों में टकराव, विज्ञानं और अध्यात्म में टकराव. ऐसा क्यूँ होता है? एक तो आपसी विश्वास का अभाव और दुसरा अपने अधिकारों का आग्रह. विश्वास यह एक वस्तु नहीं, एक प्रक्रिया है. उसके भी आगे वह chain reaction है. प्रारंभ में विश्वास रखना पड़ता है. उसके लिए आत्मविश्वास और धैर्य की जरुरत होती है. उसके बाद जिस पर विश्वास रखा गया उसकी ये जिम्मेवारी होती है की वह विश्वास तोड़ने के बजाय उसे सार्थ बनाएँ. फिर विश्वास बढ़ता है. दुसरी बार थोड़ी सहजता से विश्वास रख सकते है. इसी प्रक्रिया से विश्वास बढ़ता और सशक्त होता जाता है. यह प्रक्रिया रूकती नहीं है, वह आखिर तक चलती रहनी चाहियें; यह उस प्रक्रिया की विशेषता है. इसके विपरीत अगर होता है तो विश्वास ख़त्म हो जाता है. उसे फिर उत्पन्न करने की भी यही प्रक्रिया है. उसे फिर से प्रारंभ करना पड़ता है. इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों की सहभागिता अनिवार्य है. लेकिन फिर प्रश्न उत्पन्न होता है की, विश्वास क्यूँ रखा जाएँ और उस विश्वास को क्यूँ निभाया जाएँ? जब तक दोनों पक्षों को एक दुसरे के प्रति स्नेह और लगाव नहीं लगता, विश्वास की यह प्रक्रिया प्रारंभ ही नहीं होती. अधिकारों के आग्रह के संबंध में भी यही निष्कर्ष निकालना पड़ता है की, जब तक `मै’ की बजाय `हम’ का अनुभव नहीं होता तब तक अधिकारों की ही बात चलती है. बाकि तो छोड़ दीजियें, मातापिता या परिवार का कोई सदस्य अगर अधिकारों की बात करते है तो परिवार में अशांति उत्पन्न होना अवश्य है. अधिकार और कर्तव्य की यह प्रक्रिया भी दोनों पक्षों की सहभागिता चाहती है. हर किसी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए की दुसरे के अधिकार की रक्षा हो रही है या नहीं. अधिकार नाम की बात गलत नहीं है. लेकिन उसका ख्याल रखने की जिम्मेवारी स्वयं की नहीं दूसरों की है. जब वह जिम्मेवारी नहीं निभाई जाती तब टकराव उत्पन्न होता है. प्रश्न फिर वही उत्पन्न होता है की, दूसरों के अधिकार की रक्षा का ध्यान मै क्यूँ रखू? यह प्रक्रिया भी अंत तक चलनी चाहिए लेकिन, आपसी एकत्व की अनुभूति के अभाव में वह नहीं हो पाता.
विश्वास और अधिकार रक्षा के लिए जो एकत्व की अनुभूति चाहिए, वह कैसे हो यह मूल प्रश्न है. दैनंदिन जीवन मे, रोज के कामो मे तो एकत्व की जगह विभिन्नताही दिखाई पडती है. हरेक का रुपरंग तो अलग है ही, साथ साथ जरुरते- आदते- विचार- भावनाएं- अपेक्षाएं- रुचियाँ- खामियाँ- कौशल- सब कुछ अलग अलग है. अगर कहीं कुछ मेल खा जाता है तो उस बातों में स्तर विभिन्न है. लेकिन यह विभिन्नताएं बाह्य प्रकृति का लक्षण है. सब प्रकार की विविधताओं के बिच भी आंतर प्रकृति में एकताही अनुभूत होती है. उसमे भी एक अजीब बात है. आंतर प्रकृति की दुख, वेदना, अभाव, त्रासदी अन्याय यह बातें एकत्व का अहसास कराती है. लेकिन सुख, आनंद, उल्लास आदि बातें एकत्व के स्थान पर ईर्ष्या, द्वेष, ऊँचनिचता ऐसे भाव पैदा करती है. एकत्व उत्पन्न करने के लिए भी प्रयास किये जाते है. उसका थोडाबहुत परिणाम तो होता है. किन्तु स्थायी और आश्वस्त करनेवाला परिणाम कम होता है. इसीलिए हम देखते है की, त्यौहारों में लोग एकत्र आते है, घुमने फिरने जाते है, खातेपिते है, एकदूसरे की कुछ मदद भी कर लेते है. लेकिन इतना सब होने के बाद भी आपस में झगड़े, टकराव, मनमुटाव, पीठ पीछे बातें करना, एक दुसरे की टांग खींचना, आपस में टांग अडाना यह भी होता है. कई बार बहुत घुलेमिले लोग भी बिखर जाते है. रिश्तेनाते, दोस्ती टूट जाती है. इतनाही नहीं इसमें से बड़ी मात्रा में कटुता भी उत्पन्न होती है.
इस पुरे विश्लेषण को हम संक्षेप में यूँ रख सकते है- आपसी एकत्व की अनुभूति के अभाव में संसार में सब कुछ या तो रुक जाएगा, या फिर अव्यवस्था की स्थिति होगी. एकत्व की अनुभूति जितनी मात्रा में हो उतनी मात्रा में मनुष्य जीवन सुचारू रूप से चलेगा. उतनी मात्रा में सुख-शांति का अनुभव होगा. लेकिन सहजता से होनेवाला अनुभव तो भेदों का ही है. एकत्व उत्पन्न करनेवाले प्रयासों का परिणाम भी अपेक्षाकृत नहीं है. तो फिर प्रश्न उत्पन्न होता है की, सुख-शांतिपूर्ण मनुष्य जीवन के लिए अपरिहार्य इस प्रकार की इस एकता का अहसास कैसे होगा? हिन्दू चिंतन यह कहता है की, यह एकता उत्पन्न करने की आवश्यकता ही नहीं है. यह एकताही विद्यमान है. विभिन्न चीजों को एक करने के प्रयास विफल होंगे ही. अगर चीजे अलग अलग है तो उसमे एकत्व नहीं हो सकता. हमें एकत्व की चाह है, उसकी धुंदली ही क्यों न हो, लेकिन अनुभूति के बगैर हम जी ही नहीं सकते. बस बात तो केवल इतनी है की किसी अनजाने कारण से हम इस एकत्व को भूल गए है. हमें उसे फिर से केवल मन में जगाना है.
एकत्व कहते ही हमारे मन में कुछ विशिष्ट चित्र उत्पन्न होता है. सब लोग एक जैसा पहनावा करें, सब लोग एक साथ खाएं, सब लोग एक साथ रहें, सब लोग एकही बोली बोले, सब लोग समान रूप से सोचें, सब लोग समान रूप से उपासना करें, स्वयं की रूचि- अरुचि- जरूरतें- इनका बलिदान करें. इसमें होता यह है की, जो लोग प्रभावशाली है, ताकतवर है उनकी ही बात सब पर लागु होती है और वह बात सब के मन की भावना के रूप में प्रस्तुत की जाती है. हर कोई स्वयं में उसके अनुसार परिवर्तन करें ऐसी अपेक्षा की जाती है. एकत्व की जो भी प्रमाणिक बात होती है या एकत्व के जो भी प्रामाणिक प्रयास होते है उनमे अधिकतर इसी बात को देखा जा सकता है. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था इसका एक उदहारण है. हमारी कुटुंब व्यवस्था में भी यही देखने को मिलता है. उदाहरण के तौर पर सब लोगों के साथ अधिक से अधिक समय बिताने की बात को लें. जो प्रतिभावान लोग होते है, साहित्यिक या कलाकार होते है, लेखक होते है, वैज्ञानिक होते है, साधक होते है; उनकी अपनी अलग जरूरतें होती है. सब के साथ जादा समय बिताने के बजाय एकांत में समय बिताना उनकी जरुरत होती है. या फिर पत्नी को इच्छा हो सकती है की पति अधिक समय अपने साथ बिताएं, रोज घुमाने ले जाएँ या साथ घुमने चलें आदि. लेकिन व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए क्या यह पूरक हो सकता है? किसी कला या साहित्य से खुद को जोडना, बगीचे में या खेती में काम करना, साधना करना, सामाजिक कामों में भाग लेना ऐसी चीजों के लिए समय व्यतीत करना क्या गलत है? लेकिन ऐसी बातों पर झगडे होते है. तो, कभी कभी व्यक्तिवाद के अतिरेक के कारण मेल बिठाना मुश्किल होता है और कभी कभी व्यक्ति के न्यायपूर्ण जरूरतों को दबाने की स्थिति उत्पन्न होती है.
इस दुविधा से निपटने के लिए हमें एकत्व के सही अर्थ को समझना पडेगा. एकत्व का सही आशय है आंतरिक एकत्व. एकत्व यह मनुष्य के अंतर का भाव है. उसे बाहरी रूपों या गुणों पर थोपना गलत होगा. जब तक हम बाहर की बातें ही देखते और सोचते रहेंगे तब तक आंतरिक एकता की अनुभूति हम से दूर भागेगी. इसके दो अर्थ है- स्वयं के बारें में स्वयं की दृष्टी से सोचना और दूसरों के बारें में उन्ही की दृष्टी से सोचना. अर्थात- मुझे अगर पुस्तक पढने में रूचि है, या उस में मै रमता हूँ, वह मेरी जरुरत है तो मुझे उसी तरह से सोचना और व्यवहार करना चाहिए. और लोग पुस्तक पढने के विषय में या मेरे पुस्तक पढने के विषय में क्या सोचते है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं. लेकिन साथ ही कोई और अगर खानेपीने में आनंद का अनुभव करता है तो, मुझे उसका आदर करना चाहिए. मै अपना पुस्तक बाजु में रख दूँ यह दुसरे का आग्रह, या दूसरा अपना खानापीना दूर रखे यह मेरा आग्रह; यह दोनों बातें गलत कहनी पडेगी. स्वयं के और दूसरों के अंतर के बारें में सोचना इसके लिए आवश्यक है. यही है आध्यात्मिकता. भगवान के बारे में सोचना यह आध्यात्मिकता नहीं है. स्वयं के और दूसरों के अंतर के बारे में सोचने में, समझने में जहाँ तक भगवान की सहायता होती है, स्वागतयोग्य है. अन्यथा वह मात्र एक आदत बनकर रह जाएगी. इस आध्यात्मिकता का प्रमाण जितना अधिक होगा उतना ही व्यक्तिजीवन, समाजजीवन, राष्ट्रजीवन और विश्वजीवन शांति से और सुचारू रूप से चलेगा. इसका अभाव कुंठा और अशांति को जन्म देगा.
लेकिन एक प्रश्न फिर भी सामने खडा होता है. वह है- स्वयं की आध्यात्मिकता और लौकिक आवश्यकताएं इनका मेल किस प्रकार बिठाना? स्वयं की आध्यात्मिकता और दूसरों की आध्यात्मिकता इनका मेल कैसे बिठाना? स्वयं की आध्यात्मिकता और दूसरों की लौकिक आवश्यकताएं इनका मेल किस प्रकार बिठाना? स्वयं की लौकिक आवश्यकताएं और दूसरों की आध्यात्मिकता इनका मेल किस प्रकार बिठाना? इसके लियें कोई सार्थक उत्तर हो नहीं सकता. उसके लिए केवल एक मार्गदर्शक सूत्र हो सकता है. वह सूत्र है- क्या हम व्यापकता की ओर बढ रहे है? हमें व्यक्तिगत रूप से, सामूहिक रूप से, राष्ट्रीय रूप से, वैश्विक रूप से व्यापकता की ओर ले जाने वाली बातें, कृतियाँ योग्य है ऐसा समझना चाहिए. हमारे कर्मों से औरों को कोई नुकसान ना हो या तकलीफ ना हो यह सतत देखने की बात है. हर किसी को इसके लिए चौकन्ना रहना चाहिए. किन्तु संपूर्ण विश्व इस प्रकार सोचेगा या इस दिशा में प्रयास करेगा यह तो संभव नहीं है. इसीलिए कई व्यवस्थाओं का निर्माण होता है. लेकिन यह व्यवस्थाएं व्यापकता की ओर बढने में सहायता करनेवाली होनी चाहिए. इसीलिए लचिली भी होनी चाहिए. यही धर्म है.
धर्म किसी व्यवस्था का नाम नहीं है. न ही वह कोई निश्चित नियम और रचना है. धर्म तो एक जीवमान प्रक्रिया का नाम है. स्वयं के और औरों के अंतर को सोचते सोचते और समझते समझते इस संपूर्ण अस्तित्व के अंतर को सोचने और समझने की प्रक्रिया का नाम है धर्म. इस संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो जाना यह उस प्रक्रिया का चरम बिंदु है. तब तक यह प्रक्रिया चलती रहती है, रहनी चाहिए. स्वयं की और दूसरों की आध्यात्मिकता और लौकिकता इनका मेल बिठाते बिठाते व्यापकता की ओर बढने की जो निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है उसीका नाम है धर्म. यह धर्म व्यक्तिजीवन, समाजजीवन, राष्ट्रजीवन, विश्वजीवन का आधार है. उसे ठीक से समझकर चरितार्थ करना यही विश्वशांति की और सहअस्तित्व की अनिवार्य आवश्यकता है.
- श्रीपाद कोठे
नागपूर
निरंतर चलनेवाली जीवमान प्रक्रिया है `धर्म'
हम सब मनुष्य है. सुख-दुख, आनंद और अवसाद, आशा और हताशा ऐसी अनेकानेक भावनाओं का अनुभव करते है. उनको व्यक्त भी करते है. इन भावनाओं को अनुकूल बनाने का प्रयास भी करते है. हमारी कई जरूरते होती है. हम उन्हें पुरा करने की कोशीश करते है. वह पुरी होती है तब समाधान होता है और नहीं होती तब कुंठा का अनुभव करते है. भावनाओं और जरूरतों की इस आबाधाबी में हमें स्वयं की और औरो की आवश्यकता होती है. हम स्वयं को स्वयं के साथ और स्वयं को औरो के साथ जुड़ा हुआ और पूरक देखना चाहते है. हम अगर स्वयं के साथ अथवा औरो के साथ बिखराव का अनुभव करते है तो कुछ भी करने में असमर्थ हो जाते है. यह असमर्थता केवल शारीरिक कृति के संबंध मे ही नहीं, अपितु मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक कृति के संबंध में भी दिखाई देने लगती है. इस प्रकार का बिखराव ना हो और कर्मों में असमर्थता ना उत्पन्न हो इस दृष्टी से `समाज’ नामक व्यवस्था का विकास हुआ. यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलनी चाहिए. यह अनिवार्य है. घोर व्यक्तिवादी मनुष्य भी समाज और उसका सुचारू रूप से चलना आवश्यक मानता है. आज हम ऐसे घोर व्यक्तिवादी बहुत बड़ी मात्रा में देखते है. व्यक्तिवाद, व्यक्तिस्वतंत्रता, मै यही उनका विचार होता है. लेकिन उन्हें भी अपेक्षा होती ही है की- दूरभाष ठीक चले, रेलगाड़ियाँ अच्छी हो और समय पर चलें, कचरे के ढेर साफ होते रहे, बाजारों में सबकुछ उपलब्ध हो और दाम भी योग्य रहें, चैन से सो सके, अपने घर में चोरी न हो, हमारा जीवन सुरक्षित रहे, हम चाहे जितना शोर मचाये लेकिन हम चाहे तब शांति रहे. ऐसी कई बातें गिनाई जा सकती है. इसमें जिन बातो की अपेक्षा करते है उसे ये लोग अपना अधिकार मानते है. और जिनके सहारे ये अपेक्षाएं पूर्ण हो सकती है उनका इन अपेक्षाओं को पूर्ण करना यह उनका कर्तव्य मानते है. जिनसे अपेक्षा की जाती है वह अगर कहें की, आपकी अपेक्षाओं को पूर्ण करना मेरा कर्तव्य नहीं है; या यूँ कहें की- मेरे कर्तव्य का निर्धारण करनेवाले आप कौन हो, मै खुद तय करूँगा मेरा कर्तव्य क्या है, या फिर यूँ की- मेरे भी कुछ अधिकार है और उसे मै प्राथमिकता और प्रधानता दूंगा. इस स्थिति का समाधान क्या होगा और समाधान कौन निकालेगा? यह तो अजीबोगरीब परिस्थिति उत्पन्न होगी. इस स्थिति में काम नहीं चलेगा. आज हम कभी कभी इस स्थिति का अनुभव व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर करते है.
कानून और नियम बनाकर इस स्थिति का समाधान खोजने की कोशीश अक्सर की जाती है. यह कानून और नियम भंग करके अव्यवस्था उत्पन्न ना हो इसलिए न्यायव्यवस्था और दंडविधान का प्रावधान होता है. किन्तु यह कानून और नियम भी औरों का विचार किये बगैर तथा औरों के प्रति सहानुभूति के बगैर ना तो बनाएँ जा सकते है ना उनका पालन और क्रियान्वयन हो सकता है. कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार के खिलाफ जो महाआंदोलन हुआ वह इस बात का जीताजागता उदहारण है. कितना बड़ा आंदोलन हुआ, बड़ी मात्रा में जागृति भी हुई, सारी संसद ने विशेष अधिवेशन बुलाकर एक आवाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता जताई और कानून बनाने का संकल्प भी किया. लेकिन दीर्घ काल तक कानून नहीं बन पाया. अन्यही ऐसे कई उदहारण देखने को मिलते है. दागी जनप्रतिनिधियों के संबंध में, या राजनीतिक पार्टियों को सूचना कानून के अंतर्गत लाने के संबंध में तो; कानून तैयार करनेवाली व्यवस्था और उसके सुयोग्य क्रियान्वयन की देखरेख करनेवाली व्यवस्था आमनेसामने खडी हो गयी है. दो संरचनाओं ने मिलकर समाज को एकसाथ रखने की और चलाने की जिनकी जिम्मेवारी है उनमे ही जुड़ाव और पूरकता की जगह अगर टकराव और बिखराव रहता है तो समाज का क्या होगा?
मानवी जीवन के कई पहलुओं में इस प्रकार की स्थिति देखने को मिलती है. चिकित्सक और रोगी में टकराव, महिला और पुरुष में टकराव, अमिर और गरीब में टकराव, शिक्षार्थी और अध्यापकों में टकराव, शासन और प्रशासन में टकराव, गावों और शहरों में टकराव, कृषि और उद्योगों में टकराव, विज्ञानं और अध्यात्म में टकराव. ऐसा क्यूँ होता है? एक तो आपसी विश्वास का अभाव और दुसरा अपने अधिकारों का आग्रह. विश्वास यह एक वस्तु नहीं, एक प्रक्रिया है. उसके भी आगे वह chain reaction है. प्रारंभ में विश्वास रखना पड़ता है. उसके लिए आत्मविश्वास और धैर्य की जरुरत होती है. उसके बाद जिस पर विश्वास रखा गया उसकी ये जिम्मेवारी होती है की वह विश्वास तोड़ने के बजाय उसे सार्थ बनाएँ. फिर विश्वास बढ़ता है. दुसरी बार थोड़ी सहजता से विश्वास रख सकते है. इसी प्रक्रिया से विश्वास बढ़ता और सशक्त होता जाता है. यह प्रक्रिया रूकती नहीं है, वह आखिर तक चलती रहनी चाहियें; यह उस प्रक्रिया की विशेषता है. इसके विपरीत अगर होता है तो विश्वास ख़त्म हो जाता है. उसे फिर उत्पन्न करने की भी यही प्रक्रिया है. उसे फिर से प्रारंभ करना पड़ता है. इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों की सहभागिता अनिवार्य है. लेकिन फिर प्रश्न उत्पन्न होता है की, विश्वास क्यूँ रखा जाएँ और उस विश्वास को क्यूँ निभाया जाएँ? जब तक दोनों पक्षों को एक दुसरे के प्रति स्नेह और लगाव नहीं लगता, विश्वास की यह प्रक्रिया प्रारंभ ही नहीं होती. अधिकारों के आग्रह के संबंध में भी यही निष्कर्ष निकालना पड़ता है की, जब तक `मै’ की बजाय `हम’ का अनुभव नहीं होता तब तक अधिकारों की ही बात चलती है. बाकि तो छोड़ दीजियें, मातापिता या परिवार का कोई सदस्य अगर अधिकारों की बात करते है तो परिवार में अशांति उत्पन्न होना अवश्य है. अधिकार और कर्तव्य की यह प्रक्रिया भी दोनों पक्षों की सहभागिता चाहती है. हर किसी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए की दुसरे के अधिकार की रक्षा हो रही है या नहीं. अधिकार नाम की बात गलत नहीं है. लेकिन उसका ख्याल रखने की जिम्मेवारी स्वयं की नहीं दूसरों की है. जब वह जिम्मेवारी नहीं निभाई जाती तब टकराव उत्पन्न होता है. प्रश्न फिर वही उत्पन्न होता है की, दूसरों के अधिकार की रक्षा का ध्यान मै क्यूँ रखू? यह प्रक्रिया भी अंत तक चलनी चाहिए लेकिन, आपसी एकत्व की अनुभूति के अभाव में वह नहीं हो पाता.
विश्वास और अधिकार रक्षा के लिए जो एकत्व की अनुभूति चाहिए, वह कैसे हो यह मूल प्रश्न है. दैनंदिन जीवन मे, रोज के कामो मे तो एकत्व की जगह विभिन्नताही दिखाई पडती है. हरेक का रुपरंग तो अलग है ही, साथ साथ जरुरते- आदते- विचार- भावनाएं- अपेक्षाएं- रुचियाँ- खामियाँ- कौशल- सब कुछ अलग अलग है. अगर कहीं कुछ मेल खा जाता है तो उस बातों में स्तर विभिन्न है. लेकिन यह विभिन्नताएं बाह्य प्रकृति का लक्षण है. सब प्रकार की विविधताओं के बिच भी आंतर प्रकृति में एकताही अनुभूत होती है. उसमे भी एक अजीब बात है. आंतर प्रकृति की दुख, वेदना, अभाव, त्रासदी अन्याय यह बातें एकत्व का अहसास कराती है. लेकिन सुख, आनंद, उल्लास आदि बातें एकत्व के स्थान पर ईर्ष्या, द्वेष, ऊँचनिचता ऐसे भाव पैदा करती है. एकत्व उत्पन्न करने के लिए भी प्रयास किये जाते है. उसका थोडाबहुत परिणाम तो होता है. किन्तु स्थायी और आश्वस्त करनेवाला परिणाम कम होता है. इसीलिए हम देखते है की, त्यौहारों में लोग एकत्र आते है, घुमने फिरने जाते है, खातेपिते है, एकदूसरे की कुछ मदद भी कर लेते है. लेकिन इतना सब होने के बाद भी आपस में झगड़े, टकराव, मनमुटाव, पीठ पीछे बातें करना, एक दुसरे की टांग खींचना, आपस में टांग अडाना यह भी होता है. कई बार बहुत घुलेमिले लोग भी बिखर जाते है. रिश्तेनाते, दोस्ती टूट जाती है. इतनाही नहीं इसमें से बड़ी मात्रा में कटुता भी उत्पन्न होती है.
इस पुरे विश्लेषण को हम संक्षेप में यूँ रख सकते है- आपसी एकत्व की अनुभूति के अभाव में संसार में सब कुछ या तो रुक जाएगा, या फिर अव्यवस्था की स्थिति होगी. एकत्व की अनुभूति जितनी मात्रा में हो उतनी मात्रा में मनुष्य जीवन सुचारू रूप से चलेगा. उतनी मात्रा में सुख-शांति का अनुभव होगा. लेकिन सहजता से होनेवाला अनुभव तो भेदों का ही है. एकत्व उत्पन्न करनेवाले प्रयासों का परिणाम भी अपेक्षाकृत नहीं है. तो फिर प्रश्न उत्पन्न होता है की, सुख-शांतिपूर्ण मनुष्य जीवन के लिए अपरिहार्य इस प्रकार की इस एकता का अहसास कैसे होगा? हिन्दू चिंतन यह कहता है की, यह एकता उत्पन्न करने की आवश्यकता ही नहीं है. यह एकताही विद्यमान है. विभिन्न चीजों को एक करने के प्रयास विफल होंगे ही. अगर चीजे अलग अलग है तो उसमे एकत्व नहीं हो सकता. हमें एकत्व की चाह है, उसकी धुंदली ही क्यों न हो, लेकिन अनुभूति के बगैर हम जी ही नहीं सकते. बस बात तो केवल इतनी है की किसी अनजाने कारण से हम इस एकत्व को भूल गए है. हमें उसे फिर से केवल मन में जगाना है.
एकत्व कहते ही हमारे मन में कुछ विशिष्ट चित्र उत्पन्न होता है. सब लोग एक जैसा पहनावा करें, सब लोग एक साथ खाएं, सब लोग एक साथ रहें, सब लोग एकही बोली बोले, सब लोग समान रूप से सोचें, सब लोग समान रूप से उपासना करें, स्वयं की रूचि- अरुचि- जरूरतें- इनका बलिदान करें. इसमें होता यह है की, जो लोग प्रभावशाली है, ताकतवर है उनकी ही बात सब पर लागु होती है और वह बात सब के मन की भावना के रूप में प्रस्तुत की जाती है. हर कोई स्वयं में उसके अनुसार परिवर्तन करें ऐसी अपेक्षा की जाती है. एकत्व की जो भी प्रमाणिक बात होती है या एकत्व के जो भी प्रामाणिक प्रयास होते है उनमे अधिकतर इसी बात को देखा जा सकता है. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था इसका एक उदहारण है. हमारी कुटुंब व्यवस्था में भी यही देखने को मिलता है. उदाहरण के तौर पर सब लोगों के साथ अधिक से अधिक समय बिताने की बात को लें. जो प्रतिभावान लोग होते है, साहित्यिक या कलाकार होते है, लेखक होते है, वैज्ञानिक होते है, साधक होते है; उनकी अपनी अलग जरूरतें होती है. सब के साथ जादा समय बिताने के बजाय एकांत में समय बिताना उनकी जरुरत होती है. या फिर पत्नी को इच्छा हो सकती है की पति अधिक समय अपने साथ बिताएं, रोज घुमाने ले जाएँ या साथ घुमने चलें आदि. लेकिन व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए क्या यह पूरक हो सकता है? किसी कला या साहित्य से खुद को जोडना, बगीचे में या खेती में काम करना, साधना करना, सामाजिक कामों में भाग लेना ऐसी चीजों के लिए समय व्यतीत करना क्या गलत है? लेकिन ऐसी बातों पर झगडे होते है. तो, कभी कभी व्यक्तिवाद के अतिरेक के कारण मेल बिठाना मुश्किल होता है और कभी कभी व्यक्ति के न्यायपूर्ण जरूरतों को दबाने की स्थिति उत्पन्न होती है.
इस दुविधा से निपटने के लिए हमें एकत्व के सही अर्थ को समझना पडेगा. एकत्व का सही आशय है आंतरिक एकत्व. एकत्व यह मनुष्य के अंतर का भाव है. उसे बाहरी रूपों या गुणों पर थोपना गलत होगा. जब तक हम बाहर की बातें ही देखते और सोचते रहेंगे तब तक आंतरिक एकता की अनुभूति हम से दूर भागेगी. इसके दो अर्थ है- स्वयं के बारें में स्वयं की दृष्टी से सोचना और दूसरों के बारें में उन्ही की दृष्टी से सोचना. अर्थात- मुझे अगर पुस्तक पढने में रूचि है, या उस में मै रमता हूँ, वह मेरी जरुरत है तो मुझे उसी तरह से सोचना और व्यवहार करना चाहिए. और लोग पुस्तक पढने के विषय में या मेरे पुस्तक पढने के विषय में क्या सोचते है इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं. लेकिन साथ ही कोई और अगर खानेपीने में आनंद का अनुभव करता है तो, मुझे उसका आदर करना चाहिए. मै अपना पुस्तक बाजु में रख दूँ यह दुसरे का आग्रह, या दूसरा अपना खानापीना दूर रखे यह मेरा आग्रह; यह दोनों बातें गलत कहनी पडेगी. स्वयं के और दूसरों के अंतर के बारें में सोचना इसके लिए आवश्यक है. यही है आध्यात्मिकता. भगवान के बारे में सोचना यह आध्यात्मिकता नहीं है. स्वयं के और दूसरों के अंतर के बारे में सोचने में, समझने में जहाँ तक भगवान की सहायता होती है, स्वागतयोग्य है. अन्यथा वह मात्र एक आदत बनकर रह जाएगी. इस आध्यात्मिकता का प्रमाण जितना अधिक होगा उतना ही व्यक्तिजीवन, समाजजीवन, राष्ट्रजीवन और विश्वजीवन शांति से और सुचारू रूप से चलेगा. इसका अभाव कुंठा और अशांति को जन्म देगा.
लेकिन एक प्रश्न फिर भी सामने खडा होता है. वह है- स्वयं की आध्यात्मिकता और लौकिक आवश्यकताएं इनका मेल किस प्रकार बिठाना? स्वयं की आध्यात्मिकता और दूसरों की आध्यात्मिकता इनका मेल कैसे बिठाना? स्वयं की आध्यात्मिकता और दूसरों की लौकिक आवश्यकताएं इनका मेल किस प्रकार बिठाना? स्वयं की लौकिक आवश्यकताएं और दूसरों की आध्यात्मिकता इनका मेल किस प्रकार बिठाना? इसके लियें कोई सार्थक उत्तर हो नहीं सकता. उसके लिए केवल एक मार्गदर्शक सूत्र हो सकता है. वह सूत्र है- क्या हम व्यापकता की ओर बढ रहे है? हमें व्यक्तिगत रूप से, सामूहिक रूप से, राष्ट्रीय रूप से, वैश्विक रूप से व्यापकता की ओर ले जाने वाली बातें, कृतियाँ योग्य है ऐसा समझना चाहिए. हमारे कर्मों से औरों को कोई नुकसान ना हो या तकलीफ ना हो यह सतत देखने की बात है. हर किसी को इसके लिए चौकन्ना रहना चाहिए. किन्तु संपूर्ण विश्व इस प्रकार सोचेगा या इस दिशा में प्रयास करेगा यह तो संभव नहीं है. इसीलिए कई व्यवस्थाओं का निर्माण होता है. लेकिन यह व्यवस्थाएं व्यापकता की ओर बढने में सहायता करनेवाली होनी चाहिए. इसीलिए लचिली भी होनी चाहिए. यही धर्म है.
धर्म किसी व्यवस्था का नाम नहीं है. न ही वह कोई निश्चित नियम और रचना है. धर्म तो एक जीवमान प्रक्रिया का नाम है. स्वयं के और औरों के अंतर को सोचते सोचते और समझते समझते इस संपूर्ण अस्तित्व के अंतर को सोचने और समझने की प्रक्रिया का नाम है धर्म. इस संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो जाना यह उस प्रक्रिया का चरम बिंदु है. तब तक यह प्रक्रिया चलती रहती है, रहनी चाहिए. स्वयं की और दूसरों की आध्यात्मिकता और लौकिकता इनका मेल बिठाते बिठाते व्यापकता की ओर बढने की जो निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है उसीका नाम है धर्म. यह धर्म व्यक्तिजीवन, समाजजीवन, राष्ट्रजीवन, विश्वजीवन का आधार है. उसे ठीक से समझकर चरितार्थ करना यही विश्वशांति की और सहअस्तित्व की अनिवार्य आवश्यकता है.
- श्रीपाद कोठे
नागपूर