हमारे पुराने मित्र अजयजी पांडे, इन्होने जी.जी. बायरन का एक वाक्य उनके चित्र के साथ पोस्ट किया है. वह है- `जो लोग सवाल नहीं उठाते वह पाखंडी है, जो सवाल नही कर सकते वह मुर्ख है, जिनके जहन में सवाल उभरता ही नही वह गुलाम है.' अजयजी, लिखने के लिए एक विषय देने के लिए धन्यवाद. मै जो लिखूं, शायद आपको पसंद आए ना आए. कुबूल करना.
बायरन के इस वाक्य में सवाल न करनेवालों पर जो कटाक्ष है उससे तो मै पूर्ण रूप से असहमत हूँ. किन्तु हां, सवाल करने चाहिए इसमें तो दो राय बिल्कुल नही है. कुछ वर्ष पूर्व इसी आशय की एक कविता मैंने लिखी भी थी. सवाल उभरना, सवाल करना ये बहुत गहिरी चीजे है. बहुत ही गहरी. किन्तु आज वह बचकानी और सतही हो गयी है. सवाल यह है की सवाल क्या है? है क्या सवाल? क्या चलते फिरते मन में जो तरंग उठ जाये, बस वही सवाल है? मुझे लगता है गहराई से सोचना पड़ेगा. हमारे उपनिषदों में एक उपनिषद है उसका नाम ही है- प्रश्नोपनिषद. कुल छ: प्रश्न उसमे है और उनकी चर्चा. उसमे जाने की यहां आवश्यकता नहीं. किन्तु उस उपनिषद के प्रारंभ में ऋषीवर शिष्यों से जो कहते है वह बहुत महत्वपूर्ण है. वे कहते है- हे शिष्य, सालभर मेरे साथ रहो. अध्ययन, स्वाध्याय करो. बाद में प्रश्न पूछो. अगर मेरे पास उत्तर हो, तो मै दूंगा. देखो कितनी गहराई है? पहिली बात तो स्वयं प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास प्रथम करो. उसके लिए स्वाध्याय करो. अध्ययन करों, निरिक्षण करों आदि. तात्पर्य- प्रश्न पूछने के लिए भी कुछ आधार हो, तय्यारी हो स्वयं की. कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की तय्यारी तभी करता है जब मन में ज्ञान की प्रमाणिक जिज्ञासा हो. केवल मन में कुछ बाते उभरी और किसी को तंग करने के लिए, निचा दिखाने के लिए, प्रश्नार्थक वाक्य की रचना मात्र प्रश्न नही होते. आजकल बच्चों के प्रश्नों की भी बहुत चर्चा होती है. क्या उनकी और उनके उसी समय के समाधान की आवश्यकता भी होती है? क्या कई बार उनका समाधान असंभव नही होता? योग्य समय आने तक क्या प्रश्नों को भी नही धैर्य रखना चाहिए?
आजकल तो प्रश्नों का बहुत प्रचलन है. टीवी चर्चाएँ तो मानो सवालों की खदानें होती है. कोई भी विषय उठा लो- राजनीती, अर्थनीति, संस्कृति, कला, साहित्य, जीवन, जीवनदर्शन, वैश्विक बातें... क्या सवालों का यह स्वरूप हमे किसी भी सार्थकता तक पहुंचा सकता है? हमे उत्तर चाहिए, सार्थकता चाहिए या बौद्धिक खुजली मात्र की दृष्टी से हम सवालों की ओर देखते है? वही हाल सोशल मिडिया का भी है. हम चाहते क्या है? फिर और भी एक प्रश्न उभरता है की हमारी भावना क्या है? प्रश्न करते समय स्वयं ने स्वयं को यह सवाल पूछना चाहिए या नहीं? कई सवाल क्षमता और योग्यता की भी demand करते है. मेरे मन में डोनाल्ड ट्रंप या मोदीजी के संबंध में कुछ सवाल जरुर हो सकते है. प्रामाणिक भी हो सकते है. किन्तु मै वह पूछने का अधिकारी नही हूँ. अगर पूछने है ही तो योग्य रीती से पूछने चाहिए. किन्तु हम उनसे पूछने के सवाल अपने अगलबगल में पूछते है और उत्तर चाहते है. क्या यह ठीक है और संभव भी? दूसरी बात यह भी की, क्या हम सवाल पूछने के अधिकार के साथ ही उत्तर देने या ना देने की सामनेवाले व्यक्ति की स्वतंत्रता मानते है? ऋषीवर ने जो एक बात गहरी कही वह यहां महत्व रखती है. मेरे पास उत्तर हो तो दूंगा. लेकिन हम अर्थ निकालते है की, सामने वाला व्यक्ति अगर उत्तर नही दे सकता या उत्तर नही देने का चयन करता है; तो वह झूठा है, निचा है, गलत है... आदि आदि. हमे प्रश्न का उत्तर खोजने की बजाय और बातों में ही रूचि होती है. क्या इन्हें प्रश्न/ सवाल कहा जाना चाहिए?
मुझे लगता है प्रश्न और उनकी मौलिकता पर गहरा चिन्तन आज प्रासंगिक हो गया है.
- श्रीपाद कोठे
२० जानेवारी २०१७
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