सोमवार, ७ फेब्रुवारी, २०२२

प्रमाणपत्र और प्रगतीपुस्तक से बाहर आना आवश्यक


(भारतीय शिक्षण मंडळाच्या २०१५ च्या वार्षिकांकातील - दर्शन २०१५ मधील- लेख.)

स्वामी विवेकानंद कहते थे- शिक्षा का अर्थ है, केवल पर्दा दूर हटाना. हर व्यक्ति में ज्ञान स्वयमेव विद्यमान है. केवल उस पर जो पर्दा गिरा है उसे दूर करना आवश्यक होता है. वह अध्यापकों का कार्य है.

`शिक्षा’  इस शब्द में अध्यापन, अध्ययन, अध्यापन और अध्ययन इनका व्यक्तिपर प्रभाव एवं परिणाम; इन सभी पहलुओं का चिंतन अपेक्षित है. लेकिन आज वह होता दिखाई नही देता. उलटा ऐसा एकीकृत, समावेशी चिंतन होना चाहिए इसकी कल्पना करना भी दूभर हो रहा है. इनके बारे में जो विचार होता है वह भी अलग अलग, स्वतंत्र रूप से होता है. सभी बातों का एकत्रित विचार होता नही दिखाई पड़ता है. सभी बातों को ध्यान में रख कर एकत्रित चिंतन होना चाहिए. अभी व्यवसाय के बारे में सोचेंगे, फिर चारित्र्य के बारे में, बाद में आदतों का क्रमांक, उसके बाद समाज, पर्यावरण आदि बाते; ऐसा काम नही चलेगा. सभी बातों को एक साथ ध्यान में रख कर चिंतन की आदत डालनी पडेगी. देशभर में इस प्रकार के कुछ प्रयोग चल रहे है. किंतु वह समाज का मुख्य प्रवाह नहीं है. शिक्षा नीति का निर्धारण करनेवाले, अध्यापक (अध्यापन करनेवाले सभी घटक इसमें आयेंगे), शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हुए अध्यापकों के अलावा जो लोग है वह, अभिभावक, शिक्षार्थी, प्रसार माध्यम, समाज, सरकार; सभी ने इस संबंध में विचार करना चाहिए.

कोई मनुष्य शिक्षा ग्रहण करता है, इसका क्या अर्थ है? कोई छोटा बच्चा जब कोई अपरिचित गाना गुनगुनाता है, या कोई अपरिचित शब्द का उच्चारण करता है; उस समय हम सहज रूप से पूछते है- कहाँ से सीखा ये? किसने सिखाया? वास्तव में वह चीज किसी की सिखाई हुई नही होती. वह स्वयं इसे सीखता है. रेडिओ, टीव्ही, किसी और की बातचीत जब बालक श्रवण करता है तो वह भी उसी प्रकार से बोलना, गाना, बडबडाना प्रारंभ करता है. किसी ने उसे पढाई के लिए कहा नहीं होता, उससे कुछ अभ्यास नही करवाया होता, कोई उसकी परीक्षा नही लेता; फिर भी बालक सीखता है. क्या होती है यह प्रक्रिया? उसे जो सुनाई देता है, उसे जो दिखाई देता है; उसे ध्यान में रखकर वह बालक उसको व्यक्त करने का प्रयास करता है. किंतु उसके आसपास बोले गये हर शब्द की अथवा हर कृति की नक़ल वह नही करता. उसमे से कुछ ही बातों को वह अभिव्यक्त करता है. इसका अर्थ यह की आसपास की कई बातों में से कुछ बातों में ही उसका मन रमता है. और जिन बातों में उसका मन रमता है उन्ही को फिरसे करके देखने का प्रयास वह करता है. उन शब्दों की, गानों की उसे समझ होती है ऐसा नही. लेकिन वह वो बातें सीख लेता है. इसी प्रकार वह कृतियों का भी अनुकरण करता है. हसना, बोलना, खाना, पीना, चलना, फिरना ऐसी दर्जनों बाते वह देखकर, उसमे से जो अच्छी लगी उसे स्वयं दोहराने का प्रयास करते हुए सीखते जाता है. वह जो सीखता है वह सबकुछ योग्य होता है क्या? अच्छा होता है क्या? ऐसा नही होता. उसकी आयु और समझ बढती है तब हम उसे अयोग्य, गलत बातों के लिए डाटते है, उन बातों से उसे दूर करने का प्रयास करते है. अध्ययन- अध्यापन के संदर्भ में इसमें से तीन बाते सामने आती है. १) निरीक्षण, २) मन रमना एवं ३) अनुकरण. सीखने की यह स्वयमेव प्रक्रिया है. उसे विवेकपूर्ण दिशा देने का कार्य स्वतंत्र रूप से करना पड़ता है.

लेकिन आज शालेय, विश्वविद्यालयीन और उच्च; सभी प्रकार की शिक्षा में इसकी ओर ध्यान नही दिया जाता. आज अध्ययन को छोड़ केवल अध्यापन की चिंता की जाती है. वर्तमान में तो सुपरमॅन बनाने की होड़ लगी हुई है. हर व्यक्ति स्वतंत्र है, उसकी जरूरतें, उसका व्यक्तित्व, उसकी शारीरिक- मानसिक- बौद्धिक- रूचि और क्षमता भिन्न भिन्न होती है, इसको ध्यान में लिए बगैर मनमाफिक बाते चल रही है. मनुष्य क्या है इसको सोचे बगैर हम मनुष्य का एक कल्पनाचित्र निर्धारित कर के, सब को उसके अनुसार साँचे में ढालने का प्रयास कर रहे है. `सभी समान है’ इस आध्यात्मिक अर्थ एवं भाव को चाहे जैसा तोड़मरोड़कर व्यवहार में चरितार्थ करने का प्रयास हम कर रहे है. यह प्रयास इसलिए अयशस्वी और हास्यास्पद होता है क्यूंकि हमने जिस बात को आधार बनाया वह आधार ही गलत है. सभी समान है इसका गलत अर्थ एवं हमने बनाया हुआ मनुष्य का कल्पनाचित्र, इनके कारण शिक्षा एवं उसके परिणामस्वरूप समाज भटका हुआ है.

इस भ्रमित स्थिति का अनुभव हम आज की शिक्षा व्यवस्था में सहज रूप से ले सकते है. बालकों को सब कुछ सीखा कर उसे परिपूर्ण बनाने का प्रयास चल रहा है. उसे गणित आना चाहिए, उसका भाषा पर प्रभुत्व होना चाहिए, उसे इतिहास- भूगोल का ज्ञान होना चाहिए, कम्प्यूटर के आलावा तो हो ही नही सकता, उसने किसी कला को भी आत्मसात करना चाहिए, बड़ा होकर वह खुद के पैरों पर खड़ा होना चाहिए, इस सब के साथ वह नीतिमान भी होना चाहिए. उसे यह सब सिखाओ. और फिर ज्ञानी लोग भी रहते है. कोई कहता है- उन्हें ट्राफिक के नियम आदि बाते मालूम होनी चाहिए, उन्हें पर्यावरण के संबंध में जानकारी होनी चाहिए, सामाजिक एवं व्यक्तिगत सुरक्षा आदि बातों की जानकारी होनी चाहिए. फिर एक एक बात जोड़ते जाना और शिक्षार्थियों के, सब कुछ ढो कर ले जानेवाले गधे बनाना, यही देखने को मिलता है.

यह विश्व अतिविशाल है, ज्ञान अमर्याद है, उसमे प्रतिदिन ही नही प्रतिक्षण कुछ ना कुछ नया जुड़ता रहता है और यह जुड़ना चलते ही रहनेवाला है. नये प्रश्न और समस्याएँ उत्पन्न होते ही रहेंगी, नया तंत्रज्ञान विकसित होते ही रहेगा. लेकिन इसका अर्थ यह तो नही की हर किसी को हर बात का ज्ञान होगा या होना चाहिए. हर बात समझनी चाहिए, हर बात आनी चाहिए, ऐसा सोचना और आगे चलकर उसके लिए दुराग्रह अयोग्य ही कहना पड़ेगा. किसी बालक की अथवा व्यक्ति की वह क्षमता है या नही यह विषय ही नही है. बात यह है की क्या इस प्रकार के सर्वज्ञान की आवश्यकता है? आज की शिक्षा व्यवस्था में जो बस्ते का बोझ है उसे एकदम घटा देना चाहिए. सभी बातों का बुनियादी और स्वयंभू रीती से विचार करना चाहिए. कोन क्या कहेगा, किसने क्या किया है, दुनियाभर में क्या चल रहा है, रिपोर्टों की फाईले; इसमें से बाहर आकर मुलभूत चिंतन करना होगा.

भाषा के अध्यापन में व्याकरण, छंद, अलंकार, प्रयोग आदि कई बाते पढाई जाती है. यह सब कुछ पढनेवाले लाखो करोड़ो बच्चों को जीवन में क्या ये शब्द याद भी रहते है? कितने बच्चों को पायथागोरस याद रहता है? टायट्रेशन का उपयोग किसको कितना होता है? एस्किमो लोग क्या खाते या पीते है इसकी कितने लोगों को जरूरत होती है? शिवाजी महाराज का जन्म कब हुआ या रानी लक्ष्मीबाई की कितनी संतान थी इसका क्या महत्व है? एक प्रश्न का विचार ही नही किया जाता; वह प्रश्न है- किसलिए? भाषा किसलिए? गणित किसलिए? इतिहास किसलिए? विज्ञान किसलिए? इस `किसलिए’ प्रश्न के साथ जरूरतें जोड़कर और अध्ययन की मुलभूत प्रक्रिया ध्यान में रखकर सभी बातों का निर्धारण होना चाहिए.

उदाहरण के तौर पर भाषा का विचार करें. भाषा किसलिए? विचार और भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए, जानकारी की लेनदेन के लिए, संवाद का माध्यम इस रूप में, ज्ञानार्जन एवं ज्ञानदान के लिए. इन बातों के लिए सभी को उसका व्याकरण मालूम हो यह जरूरी नहीं, पुरानी एवं वर्तमान भाषा का तौलनिक अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं, साहित्य तथा समाज के सारे प्रवाह- सभी व्यक्ति- सभी आन्दोलन- चिंतनप्रवाह- इन सब के अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती. कौनसी पुस्तके किसने लिखी है आदि बातें मुखोद्गत हो यह आवश्यक नहीं. किंतु आज यही सबकुछ देखने को मिलता है. संत साहित्य से कुछ हिस्सा या फिर किसानों या खेती से संबंधित कुछ बात; पढना-पढाना कितना मनोरंजक होता है इसका अनुभव सभी को आता है. आगे जाकर इसका उपयोग क्या होता है, यह प्रश्न तो है ही. किसलिए हम समय, धन, उर्जा, मानवी शक्ति का विशाल अपव्यय करते है? अच्छा; पढाते तो पढाते है और उपरसे शिक्षार्थी के स्मरणशक्ति की परीक्षा लेकर किसीको बुद्धिमान और किसीको बुद्धू ठहराते है? संत साहित्य का अध्ययन या ग्रामीण जीवन की जानकारी, कौन बुद्धिमान और कौन बुद्धू यह निश्चित करने के लिए होना चाहिए क्या? कई बार ऐसा देखने में आता है की, स्वभावत: बुद्धिमान विद्यार्थी भाषा विषय भी अच्छा आत्मसात करते है. उन्हें गणित, विज्ञान के साथ ही भाषा विषय में भी अच्छे गुण प्राप्त होते है. लेकिन आगे चलकर ये विद्यार्थी डॉक्टर, इंजिनियर बनते है. और जिन्हें गणित, विज्ञान के साथ ही भाषा विषय में भी कम गुण प्राप्त होते है वे आगे चलकर कला शाखा का अध्ययन करते है. सरल विषय के नाते भाषा का अध्ययन करते है. ऐसे मूलतः सामान्य लोग फिर भाषा का अध्यापन करते है. उनके कई किस्से फिर टीव्ही और अख़बारों में चाव से देखें और पढ़े जाते है.

संक्षेप में कहें तो- भाषा का अध्यापन, अध्ययन गंभीरता से होता नहीं है; उसके बारे में आत्मीयता, आदर, रसवत्ता, मिठास, उपयोगिता कुछ भी उत्पन्न नहीं होता. उसके परिणाम आज देखने को मिलते है. लोगों का बोलचाल, संवाद, चर्चा, कोई बात व्यक्त करने का ढंग और उसका स्तर आदि कितना गिर गया है. इसपर उपाय क्या है? सर्वप्रथम भाषा में रस और आनंद निर्माण हो इस प्रकार भाषा का परिचय होना चाहिए. कथाकथन, कहानियां, छोटे छोटे गुटों में बातचीत- चर्चा, यह तरीका हो सकता है. कविताओं पर लेक्चर देने के बजाय सुंदर सुंदर कविताएँ मुखोद्गत करवा लेना अच्छा होगा. पुस्तक प्रदर्शनों का आयोजन करके बालकों को घंटों पुस्तके देखने का, हाथों में लेने का अवसर और आनंद मिलना चाहिए. उसमे से अपनापन और आनंद निर्मिती होगी, जो उसे भाषा से जोड़ेगी. चार वर्ष की आयु तक बच्चें घर में ही रहें. घर में ही उससे अधिकाधिक बातचीत करें. चार वर्ष पूर्ण होने से पहले विद्यालय में दाखिल करना दंडनीय अपराध होना चाहिए. आजकल बच्चों को जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी विद्यालय में भेजने का प्रयास रहता है. वह वांछनीय नहीं है. विद्यालय में दाखिल होने के पश्चात भी, दस वर्ष की आयु तक पुस्तके, लेखन, बस्ता, परीक्षा, स्पर्धाएं नहीं होनी चाहिए. केवल मौखिक शिक्षा हो. कथा कहानियाँ, गाने, जानकारी, चर्चा, बातचीत, खेल (मैदान में, बैठ कर, बौद्धिक, मानसिक सभी प्रकार के), व्यायाम, चित्रकला, संगीत, आदतें, व्यवहार, अच्छे बुरे का बोध, सामूहिकता, निसर्ग, पशुपक्षी, पेड़ पौधे, वस्तुएं आदि बातों की उन्हें जानकारी हो; उन्हें पहचानने की शक्ति बढ़े ऐसा प्रयास हो. हर बात हर कोई करें ऐसा आग्रह न हो. हर किसी की रूचि अलग अलग होती है. उसके अनुसार उसे जहाँ उसका मन रमेगा वह बात करने देनी चाहिए. आखरी दो वर्षो में उसे अक्षरों की जानकारी देकर लिखना, पढना सिखाया जाएँ. वह भी सरल तथा उसे आनंद मिले इस प्रकार से.

खेलने, व्यायाम करने की आयु में हम बच्चों को बैठा कर रखते है. फिर १५-२० साल का होने के बाद उसमे से कुछ गिनेचुने जिम आदि में जाते है. पैसा खर्च किये बगैर शरीर तंदुरुस्त रखने के लिए हर व्यक्ति जो कुछ कर सकता है उसकी शिक्षा हम नहीं देते और फिर सामाजिक स्वास्थ्य के बारे में चिंता करते रहते है. अख़बार पढने की आदत बचपन से विकसित करनी चाहिए. सामान्य ज्ञान के कई वर्ग और उसकी परीक्षा जो साध्य न कर पाएगी, वह इस एक अच्छी आदत से साध्य होगा. जीवनभर उसका साथ निभानेवाली और उपयोगी ऐसी यह आदत है. कंठस्थ करना यह भी आवश्यक है. आजकल उसके संबंध में गलत दृष्टी है. केवल कुछ रटने से क्या फायदा ऐसा युक्तिवाद किया जाता है. किंतु, पहाड़े, कविताएँ, श्लोक, स्तोत्र, गीत, भजन आदि कंठस्थ करने से; ग्रहण की हुई चीज पकड़ कर रखने की बुद्धि की धारणाशक्ति विकसित होती है. इसके अलावा वाणी के संस्कार, जिव्हा के संस्कार होते है. अंग्रेजी कविताओं की जगह संस्कृत स्तोत्र आदि कंठस्थ करने से जिव्हा जैसी चाहो वैसी मुड सकती है. कठिन से कठिन उच्चारण उससे संभव होता है.

आयु के अनुसार कक्षाएं रखने के बजाय, विषयों के अनुसार कक्षाएं हो. जैसे- चित्रकला कक्षा, खेल कक्षा, कविता कक्ष, कथाकथन कक्षा आदि. जिस समय बच्चे को जिस विषय में रूचि लगें उस कक्षा में वो सहभागी होगा. जब स्वयं की इच्छा से वो किसी कक्षा में सहभागी होगा तब वो उस बात को जल्दी, मन से, पक्के रूप में ग्रहण एवं आत्मसात करेगा. कक्षा का अर्थ भी केवल कमरे नहीं होना चाहिए. कक्षा खुले मैदान में, बगीचे में, वृक्ष के निचे, ग्रंथालय में, रंगमंच पर, दुकान में, ऐसी भी हो सकती है. देखने में आता है की- पालक, गोभी, करेले, तबला, सतार, बासुंरी, कालीन, रंगोली, गेंदा, गुलाब, मोगरा; आदि भी बच्चों को पता नहीं होता. ऐसी कई बाते- जिनका परिचय करवाना, उनकी विशेषताएँ समझाना, उनका उपयोग, उनका मेंटेनन्स यह सब पढ़ाया जा सकता है. अपनी चीजे सम्हालकर रखना, कपडे ठीक से रखना, चप्पल-जूते कतार में रखना, पुस्तकों को कव्हर डालना; ऐसी कई बाते है जो उनसे करवा लेना सहायक सिद्ध होगा. अंक, घड़ी, पैसा, हिसाब यह सभी को आवश्यक बाते है; ये बाते सभी को ठीक से समझे यह देखना चाहिए. इसके लिए जिनकी भाषा अच्छी है ऐसे, अच्छी संवादकुशलता जिनकी हो ऐसे, समझदार, परिपक्व, संवेदनशील, बच्चों की विकास में रूचि रखनेवाले, निरीक्षण और विश्लेषण क्षमता हो ऐसे, निर्व्यसनी ऐसे अध्यापक हो. अध्यापक का दायित्व देते समय इच्छा, व्यासंग, वृत्ति इनका विचार हो. इसके लिए बी.एड. – डी.एड. की मानसिकता से बाहर आना पड़ेगा. किसी भी आयु में अध्यापन कार्य प्रारंभ करने की व्यवस्था होनी चाहिए. कोई व्यक्ति दूसरा कुछ काम करता हो और ४० या ५० की आयु में उसे अध्यापन का काम करना है तो; या किसी मध्यम आयु के गृहिणी को अध्यापन की इच्छा हो तो उसकी सुविधा होनी चाहिए. अध्यापक और विद्यार्थियों के साथ ही संपूर्ण शिक्षा क्षेत्र को प्रमाणपत्र एवं प्रगतिपुस्तक से बाहर निकालना चाहिए.

इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, भाषा इन विषयों को परीक्षा से दूर रखना चाहिए. देशभक्ति, शौर्य, बलिदान, आत्मगौरव, आत्मविश्वास ऐसे गुणों की वृद्धि हो इस प्रकार; कलात्मक पद्धति से इन विषयों का अध्ययन- अध्यापन हो. नागरिकशास्त्र प्रत्यक्ष अनुभवों से पढ़ाना चाहिए. उदाहरण के लिए- ट्राफिक के नियम आदि, प्रत्यक्ष चौराहेपर जाकर पढ़ाने चाहिए. नीतिमत्ता, धार्मिकता, सहृदयता इन बातों का मन में संवर्धन हो इसका ध्यान रखना चाहिए. उसके लिए निर्व्यसनी, आस्थावान, प्रामाणिक अध्यापक चाहिए. क्यूंकि, यह बातें केवल बताने से काम नही होता और बताने का परिणाम भी तभी होता है, जब बतानेवाले का आचरण उसके अनुसार हो. इसलिए नैतिक, धार्मिक शिक्षा देनेवाले अध्यापक व्रतस्थ होने चाहिए. डी.एड. या बी.एड. ना करनेवाली माता सबसे अच्छी अध्यापक होती है, इस बात को भूलकर काम नहीं चलेगा.

जब बच्चे स्वयं कुछ निरिक्षण करेंगे, कुछ स्वयं करके देखेंगे और उसमे रमने लगेंगे, आनंद लेने लगेंगे; तब उनमे छिपी हुई अध्ययनशीलता विकसित होगी. उसकी अध्ययन की गति भी बढ़ेगी. जोरजबरदस्ती, परीक्षा, उसका टेन्शन, उसका भय, अनावश्यक स्पर्धा, उससे उत्पन्न होनेवाला तू तू- मै मै, बुद्धिमान और बुद्धू ये भाव, कम आयु से ही पाले जानेवाले अहंगंड और न्यूनगंड; यह सब तुरंत रोकने की आवश्यकता है. बेटे ने इतनी परीक्षाएं पास की, इसके बजाय बेटे ने इतनी बाते ग्रहण की- इतनी बाते पढ़ी, उसका व्यक्तित्व फलाफुला, उसकी शारीरिक/ मानसिक/ बौद्धिक तंदुरुस्ती अच्छी हुई; ऐसा सोचने की आदत डालने की जरूरत है. 

इस प्रथम सोपान के पश्चात उसके रूचि के अनुसार दो-तीन विषयों की शिक्षा उसे दी जा सकती है. प्रथम सोपान के अध्यापकों की सहायता लेकर उसके रूचि और वृत्ति के संबंध में निर्णय कर सकते है. अगली पांच वर्ष इन तीन-चार चयनित विषयों की व्यापक शास्त्रीय एवं व्यावहारिक शिक्षा उसे दी जाएँ. विज्ञान लेबोरेटरी, तंत्रज्ञान, विविध यंत्र हथियार, खेती, डाक विभाग, बैंक, अलग अलग व्यवसाय ऐसी व्यवसायनिष्ठ बातें उसे पढाई जाएँ. जिसमे उसे रूचि होगी उसमे उसे आगे मार्गदर्शन मिले. अच्छा नागरिक और अच्छा व्यक्ति इस नाते से उसका विकास हो यह ध्यान देना आवश्यक. आयुनुसार कुछ नये विषय भी पढ़ाने पड़ेंगे. अध्यापन में व्यक्तिगत संवाद अधिक हो तो अच्छा. छह छह महिनों के छोटे अभ्यासक्रम हो.

इस प्रकार एक आधार तैयार होने के पश्चात जिन्हें आगे अध्ययन करना है वो अध्ययन करें. जिन्हें अध्ययन नही करना वो अपनी इच्छा से व्यवसाय या नौकरी करें. जो काम करना है उसका, काम की जगह पर ही तीन महीने- छह महीने प्रशिक्षण हो. आगे चलकर अगर फिरसे उसे पढने की इच्छा हुई तो छह महीने या सालभर अवकाश लेकर किसी विषय का या उसी विषय का उच्चस्तरीय अध्ययन वो करें. जो विद्यार्थी दुसरे सोपान से आगे पढने की इच्छा रखते हो उन्हें एकेक विषय का सखोल अध्यापन हो. इसमें फिर व्याकरण, इतिहास, विज्ञान, अनुसंधान, संशोधन आदि सभी बाते बारीकी से विस्तार से पढाई जाएँ. इसमें से सभी विषयों के ज्ञाता, संशोधक, अध्यापक प्राप्त होंगे.

इससे शिक्षा अधिक खुली, व्यापक और अर्थपूर्ण होगी. किसी को भी किसी भी आयु में किसी भी विषय का अध्ययन करना सुलभ होगा. अध्ययन के पश्चात क्या? इस प्रश्न को ठीक उत्तर मिलेगा. शिक्षा क्षेत्र से केवल विद्यार्थियों के बजाय व्यक्ति निर्मित होंगे. अनावश्यक जटिलता दूर होगी. यह चिंतन संपूर्ण नहीं है. कोई एक व्यक्ति एक लेख में संपूर्ण चिंतन प्रस्तुत कर भी नहीं सकता. उसके लिए अनेको लोगों को एकत्रित बैठकर, कष्टपूर्वक, बारीकी से अध्ययनपूर्वक तैय्यारी और योजना बनानी पडेगी. किंतु सर्वसाधारण दिशा क्या हो सकती है इसका एक चित्र प्रस्तुत करने का यह अल्पमति प्रयास है.

- श्रीपाद कोठे

नागपूर

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