काल आलेले त्रिपुरा विधानसभेचे निकाल हा डाव्या पक्षांचा आणि विचारांचा राजकीय पराभव आहे. उरलासुरला राजकीय पराभव नजीकच्या भविष्यात होईल. परंतु डाव्या विचारसरणीचा वैचारिक, संकल्पनात्मक, सैद्धांतिक, व्यवस्थात्मक; तसेच शब्द, भावना, दृष्टी, कल्पना, जीवन, विचारपद्धती; या साऱ्या संदर्भातील पराभव ही प्रदीर्घ लढाई आहे. पुढील संघर्ष तोच राहणार आहे. राजकीय संघर्षापेक्षा तो अधिक जटील, गुंतागुंतीचा, दमाचा आहे. मुख्य म्हणजे तोच अधिक महत्वाचा आणि मुलभूत आहे. त्यासाठी कंबर कसून तयारी हवी. याची जाणीव हवी तेवढी नाही हेही सत्य आहे. ही जाणीव वाढावी एवढेच. या भावी संघर्षासाठी पाथेय म्हणून पंडित दीनदयाळ उपाध्याय यांच्या विचारातील एक वेचा.
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`विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्त होना ही भारतीय संस्कृति का केंद्रस्थ विचार है. यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो फिर विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा. यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का द्योतक नहीं, विकृति का द्योतक है. जिस मात्स्यन्याय या जीवन के संघर्ष को पश्चिम ने प्रतिपादित किया उसका ज्ञान हमारे दार्शनिकों को था. मानव जीवन में कम क्रोध आदि षडविकारों को भी हमने स्वीकार किया है. किंतु इन सब प्रवृत्तियों को अपनी संस्कृति अथवा शिष्ट व्यवहार का आधार नहीं बनाया. समाज में चोर और डाकू होते है.उनसे अपनी और समाज की रक्षा भी करनी चाहिए. किंतु उनको हम अनुकरणीय अथवा मानव व्यवहार की आधारभूत प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि मानकर नहीं चल सकते. जिसकी लाठी उसकी भैंस (survival of the fittest) जंगल का विधान है. मानव की सभ्यता का विकास इस विधान को मानकर नहीं बल्कि यह विधान न चल पाए इसलिए किए हुए प्रयासों के कारण हुआ है. आगे भी यदि बढना हो तो हमें इस इतिहास को ध्यान में रखकर ही चलना होगा.' (पंडित दीनदयाल उपाध्याय, एकात्म मानववाद- २३ एप्रिल १९६५)
- श्रीपाद कोठे
४ मार्च २०१८
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